अध्याय आठ - अक्षर ब्रह्म योग
अविनाशी भगवान का योग
अक्षर ब्रह्म योग हमें ब्रह्म की प्रकृति, आत्मा, कर्म, तत्व, देवता, यज्ञ और मृत्यु के समय भगवान को प्राप्त करने के मार्ग के बारे में सिखाता है।
ब्रह्म वह सर्वोच्च सत्ता है जो अविनाशी और शाश्वत है। यह इस संसार की क्षणभंगुर प्रकृति से परे है। आत्मा वह चेतना है जो प्रत्येक मनुष्य के भीतर निवास करती है। यह भी अविनाशी और शाश्वत है। कर्म वे क्रियाएं हैं जो हम करते हैं। वे अच्छे या बुरे हो सकते हैं। हमारे कर्म हमारे भविष्य के जीवन को निर्धारित करते हैं।
तत्व वे पांच मूल तत्व हैं जिनसे यह संसार बना है: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। देवता वे शक्तियां हैं जो विभिन्न प्राकृतिक प्रक्रियाओं को नियंत्रित करती हैं। यज्ञ वह आध्यात्मिक अनुष्ठान है जिसके द्वारा हम ब्रह्म से जुड़ते हैं।
मृत्यु के समय, जिस प्रकार की चेतना में हम होते हैं, वही हमारे अगले जीवन को निर्धारित करता है। यदि हम ब्रह्म के बारे में सोच रहे हैं, तो हम उसके परम धाम को प्राप्त करेंगे। यदि हम भौतिक दुनिया के बारे में सोच रहे हैं, तो हम पुनर्जन्म लेंगे।
इस अध्याय में, कृष्ण अर्जुन को भगवान का निरंतर स्मरण करने और पवित्र शब्द ओम पर ध्यान करने की सलाह देते हैं। ओम ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करता है। कृष्ण कहते हैं कि यदि हम भक्ति के साथ उनका शरणागत होते हैं, तो हम उनका परम धाम प्राप्त कर लेंगे।
अक्षर ब्रह्म योग हमें सिखाता है कि समय और स्थान की सीमाओं को कैसे पार किया जाए और अपनी वास्तविक पहचान को शाश्वत आत्मा के रूप में कैसे महसूस किया जाए, जो शाश्वत परमात्मा का हिस्सा है।
अर्जुन ने कहाः हे भगवान! 'ब्रह्म' क्या है? 'अध्यात्म' क्या है और कर्म क्या है? 'अधिभूत' को क्या कहते हैं और 'अधिदैव' किसे कहते हैं? हे मधुसूदन। अधियज्ञ कौन है और यह अधियज्ञ शरीर में कैसे रहता है? हे कृष्ण! दृढ़ मन से आपकी भक्ति में लीन रहने वाले मृत्यु के समय आपको कैसे जान पाते हैं?
परम कृपालु भगवान ने कहाः परम अविनाशी सत्ता को ब्रह्म कहा जाता है। किसी मनुष्य की अपनी आत्मा को अध्यात्म कहा जाता है। प्राणियों के दैहिक व्यक्तित्व से संबंधित कर्मों और उनकी विकास प्रक्रिया को कर्म या साकाम कर्म कहा जाता है।
हे देहधारियों में श्रेष्ठ! भौतिक अभिव्यक्ति जो निरन्तर परिवर्तित होती रहती है उसे अधिभूत कहते हैं। भगवान का विश्व रूप जो इस सृष्टि में देवताओं पर भी शासन करता है उसे अधिदैव कहते हैं। सभी प्राणियों के हृदय में स्थित, मैं परमात्मा अधियज्ञ या सभी यज्ञों का स्वामी कहलाता हूँ।
वे जो शरीर त्यागते समय मेरा स्मरण करते हैं, वे मेरे पास आएँगे। इस संबंध में निश्चित रूप से कोई संदेह नहीं है।
हे कुन्ती पुत्र! मृत्यु के समय शरीर छोड़ते हुए मनुष्य जिसका स्मरण करता है वह उसी गति को प्राप्त होता है क्योंकि वह सदैव ऐसे चिन्तन में लीन रहता है।
इसलिए सदा मेरा स्मरण करो और युद्ध लड़ने के अपने कर्त्तव्य का भी पालन करो, अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित करो तब तुम निचित रूप से मुझे पा लोगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।
हे पार्थ! अभ्यास के साथ जब तुम अविचलित भाव से मन को मुझ पुरुषोत्तम भगवान के स्मरण में लीन करते हो तब तुम निश्चित रूप से मुझे पा लोगे।
भगवान सर्वज्ञ, आदि पुरूष, नियन्ता, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम, सबका पालक, अज्ञानता के सभी अंधकारों से परे और सूर्य से अधिक तेजवान हैं और अचिंतनीय दिव्य स्वरूप के स्वामी हैं। मृत्यु के समय जो मनुष्य योग के अभ्यास द्वारा स्थिर मन के साथ अपने प्राणों को भौहों के मध्य स्थित कर लेता है और दृढ़तापूर्वक पूर्ण भक्ति से दिव्य भगवान का स्मरण करता है वह निश्चित रूप से उन्हें पा लेता है।
वेदों के ज्ञाता उसका वर्णन अविनाशी के रूप में करते हैं। महान तपस्वी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं और उसमें स्थित होने के लिए सांसारिक सुखों का त्याग करते हैं। मैं तुम्हें इस मुक्ति के मार्ग के संबंध में संक्षेप में बताऊंगा।
शरीर के समस्त द्वारों को बंद कर मन को हृदय स्थल पर स्थिर करते हुए और प्राण वायु को सिर पर केन्द्रित करते हुए मनुष्य को दृढ़ यौगिक चिन्तन में स्थित हो जाना चाहिए।
जो देह त्यागते समय मेरा स्मरण करता है और पवित्र अक्षर ओम का उच्चारण करता है वह परम गति को प्राप्त करेगा।
हे पार्थ! जो योगी अनन्य भक्ति भाव से सदैव मेरा चिन्तन करते हैं, उनके लिए मैं सरलता से सुलभ रहता हूँ क्योंकि वे निरन्तर मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं।
मुझे प्राप्त कर महान आत्माएँ फिर कभी इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेतीं जो अनित्यऔर दुखों से भरा है क्योंकि वे पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर चुकी होती हैं।
हे अर्जुन! इस भौतिक सृष्टि के सभी लोकों में ब्रह्मा के उच्च लोक तक तुम्हें पुनर्जन्म प्राप्त होगा। हे कुन्ती पुत्र! परन्तु मेरा धाम प्राप्त करने पर फिर आगे पुनर्जन्म नहीं होता।
हजार चक्र के चार युग (महायुग) का ब्रह्म का (कल्प) एक दिन होता है और इतनी अवधि की उसकी एक रात्रि होती है। इसे वही बुद्धिमान समझ सकते हैं जो दिन और रात्रि की वास्तविकता को जानते हैं।
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ पर सभी जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और रात्रि होने पर पुनः सभी जीव अव्यक्त अवस्था में लीन हो जाते हैं।
ब्रह्मा के दिन के आगमन के साथ असंख्य जीव पुनः जन्म लेते हैं और ब्रह्माण्डीय रात्रि के आने पर अगले ब्रह्माण्डीय दिवस के आगमन पर स्वतः पुनः प्रकट होने के लिए विलीन हो जाते हैं।
व्यक्त और अव्यक्त सृष्टि से परे अन्य अव्यक्त शाश्वत आयाम है। जब सब कुछ विनष्ट हो जाता है किन्तु उसकी सत्ता का विनाश नहीं होता।
यह अव्यक्त आयाम परम गन्तव्य है और इस पर पहुंच कर फिर कोई नश्वर संसार में लौट कर नहीं आता। यह मेरा परम धाम है।
परमेश्वर का दिव्य व्यक्तित्व सभी सत्ताओं से परे है। यद्यपि वह सर्वव्यापक है और सभी प्राणी उसके भीतर रहते है तथापि उसे केवल भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है।
हे भरत श्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें इस संसार से दूर विभिन्न मार्गों के संबंध में बताऊँगा। इनमें से एक मार्ग मुक्ति की ओर ले जाने वाला है और दूसरा पुनर्जन्म की ओर ले जाता है। वे जो परब्रह्म को जानते हैं और जो उन छः मासों में जब सूर्य उत्तर दिशा में रहता है, चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष की रात्रि और दिन के शुभ लक्षण में देह का त्याग करते हैं, वे परम गंतव्य को प्राप्त करते हैं। वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करने वाले साधक, चन्द्रमा के कृष्णपक्ष की रात्रि में धुएँ के समय जब सूर्य दक्षिणायन में रहता है, के छह माह के भीतर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं। स्वर्ग के सुख भोगने के पश्चात वे पुनः धरती पर लौटकर आते हैं। प्रकाश और अंधकार के ये दोनों पक्ष संसार में सदा विद्यमान रहते हैं। प्रकाश का मार्ग मुक्ति की ओर तथा अंधकार का मार्ग पुनर्जन्म की ओर ले जाता है।
हे पार्थ! जो योगी इन दोनों मार्गों का रहस्य जानते हैं, वे कभी मोहित नहीं होते इसलिए वे सदैव योग में स्थित रहते हैं।
जो योगी इस रहस्य को जान लेते हैं वे वेदाध्ययन, तपस्या, यज्ञों के अनुष्ठान और दान से प्राप्त होने वाले फलों से परे और अधिक लाभ प्राप्त करते हैं। ऐसे योगियों को भगवान का परमधाम प्राप्त होता है।