अध्याय-पन्द्रह - पुरुषोत्तम योग
सर्वोच्च दिव्य स्वरूप योग
पुरुषोत्तम योग का अर्थ है "सर्वोच्च दिव्य पुरुष का योग"। इस अध्याय में, कृष्ण अर्जुन को अविनाशी पीपल के पेड़ का रहस्य बताते हैं, जो भौतिक दुनिया और उसकी उत्पत्ति, वृद्धि और क्षय का प्रतीक है। वे बताते हैं कि इस वृक्ष की जड़ ब्रह्म है, जो सर्वोच्च वास्तविकता है, और इसकी शाखाएं प्रकृति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जो भौतिक प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रजस और तमस) से पोषित होती हैं।
वे उन इंद्रिय विषयों, कार्यों और परिणामों का भी वर्णन करते हैं जो जीवों को इस वृक्ष से बांधते हैं। वे अर्जुन को सलाह देते हैं कि वे वैराग्य की कुल्हाड़ी से इस वृक्ष को काटें और जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की तलाश करें, जो कि उनके शाश्वत धाम को प्राप्त करना है, जहां रोशनी के लिए सूर्य, चंद्रमा या अग्नि की आवश्यकता नहीं है।
वे आगे बताते हैं कि वे सभी प्राणियों के स्रोत और पालनहार हैं, और व्यक्तिगत आत्माएं उनके शाश्वत अंश हैं, जो अपनी अज्ञानता और लगाव के कारण जन्म और मृत्यु के चक्र में उलझी हुई हैं। वे बताते हैं कि कैसे आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में मन और इंद्रियों को ले जाती है, और कैसे केवल ज्ञान की आंख रखने वाले ही उसकी उपस्थिति और प्रस्थान का अनुभव कर सकते हैं।
वे यह भी घोषणा करते हैं कि वे चेतना के प्रकाश के रूप में हर चीज में मौजूद हैं, और उनकी सृष्टि में उनकी महिमा को पहचानकर कोई भी उनके अस्तित्व को महसूस कर सकता है। फिर वे सभी जीवित प्राणियों में पाचन की अग्नि के रूप में और स्मृति, ज्ञान और विस्मृति के दाता के रूप में अपनी भूमिका का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि वे सभी के दिलों में बैठे हैं, और भक्ति के साथ उनके सामने समर्पण करके, कोई भी उन्हें बिना किसी असफलता के प्राप्त कर सकता है।
अंत में वे क्षर (नाशवान), अक्षर (अविनाशी) और पुरुषोत्तम (सर्वोच्च व्यक्ति) के बीच अंतर बताते हैं। वे कहते हैं कि क्षर जीवित प्राणी हैं जो जन्म और मृत्यु के अधीन हैं; अक्षर मुक्त प्राणी हैं जो उनके धाम में निवास करते हैं; और पुरुषोत्तम स्वयं हैं, जो क्षर और अक्षर दोनों से परे हैं, और सभी के सर्वोच्च नियंत्रक और भोक्ता हैं। वे यह कहकर समाप्त करते हैं कि जो कोई भी उन्हें पुरुषोत्तम के रूप में जानता है, वह पूर्णता की उच्चतम अवस्था प्राप्त कर लेता है।
पुरुषोत्तम योग हमें सिखाता है कि भौतिक दुनिया की प्रकृति और उत्पत्ति को कैसे समझें, इससे खुद को कैसे अलग करें और कृष्ण को सर्वोच्च दिव्य व्यक्तित्व के रूप में कैसे महसूस करें और उनकी पूजा करें।
पुरुषोतम भगवान ने कहाः ऐसा कहा गया है कि शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर तथा इसकी शाखाएँ नीचे की ओर होती हैं। इसके पत्ते वैदिक स्रोत हैं और जो इस वृक्ष के रहस्य को जान लेता है उसे वेदों का ज्ञाता कहते हैं।
इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर तथा नीचे की ओर फैलती हैं और इन्द्रिय विषयों के साथ कोमल कोंपलों के समान तीनों गुणों द्वारा पोषित होती हैं। वृक्ष की जड़ें नीचे की ओर भी लटकी होती हैं जिसके कारण मानव जन्म में कर्मों का प्रवाह होता है। इसकी नीचे के ओर की जड़ों की शाखाएँ संसार में मानव जाति के कर्मों का कारण हैं।
इस संसार में इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं हो सकता और न ही इसके आदि, अंत और निरन्तर अस्तित्व को जाना जा सकता है। अतः इस गहन जड़ों वाले अश्वत्थ वृक्ष को विरक्ति रूपी सशक्त शस्त्र से काट देना चाहिए तभी कोई इसके आधार को जान सकता है जो कि परम प्रभु हैं जिनसे ब्रह्माण्ड की गतिविधियों का अनादिकाल से प्रवाह हुआ है और उनकी शरण ग्रहण करने पर फिर कोई इस संसार में लौट कर नहीं आता।
वे जो अभिमान और मोह से मुक्त रहते हैं एवं जिन्होंने आसक्ति की बुराई पर विजय पा ली है, जो निरन्तर अपनी आत्मा और भगवान में लीन रहते हैं, जो इन्द्रिय भोग की कामना से मुक्त रहते हैं और सुख-दुख के द्वन्द्वों से परे हैं, ऐसे मुक्त जीव मेरा नित्य ध मि प्राप्त करते हैं।
न तो सूर्य, न ही चन्द्रमा और न ही अग्नि मेरे सर्वोच्च लोक को प्रकाशित कर सकते हैं। वहाँ जाकर फिर कोई पुनः इस भौतिक संसार में लौट कर नहीं आता।
इस भौतिक संसार की आत्माएँ मेरा शाश्वत अणु अंश हैं लेकिन प्राकृत शक्ति के बंधन के कारण वे मन सहित छः इन्द्रियों के साथ संघर्ष करती हैं।
जिस प्रकार से वायु सुगंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है उसी प्रकार से देहधारी आत्मा जब पुराने शरीर का त्याग करती है और नये शरीर में प्रवेश करती है उस समय वह अपने साथ मन और इन्द्रियों को भी ले जाती है।
कान, आंख, त्वचा, जिह्वा और नासिका के इन्द्रिय बोध जो मन के चारों ओर समूहबद्ध हैं, के साथ देहधारी आत्मा इन्द्रिय विषयों का भोग करती है।
अज्ञानी आत्मा का अनुभव नहीं कर पाते जबकि यह शरीर में रहती है और इन्द्रिय विषयों का भोग करती है और न ही उन्हें इसके शरीर से प्रस्थान करने का बोध होता है लेकिन वे जिनके नेत्र ज्ञान से युक्त होते हैं वे इसे देख सकते हैं।
भगवद्प्राप्ति के लिए प्रयासरत योगी यह जानने में समर्थ हो जाते हैं कि आत्मा शरीर में प्रतिष्ठित है किन्तु जिनका मन शुद्ध नहीं है वे प्रयत्न करने के बावजूद भी इसे जान नहीं सकते।
यह जान लो कि मैं सूर्य के तेज के समान हूँ जो पूरे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है। सूर्य का तेज और अग्नि की दीप्ति मुझसे ही उत्पन्न होती है।
पृथ्वी पर व्याप्त रहकर मैं सभी जीवों को अपनी शक्ति से पोषित करता हूँ। चन्द्रमा के रूप में मैं सभी पेड़-पौधों और वनस्पतियों को जीवन रस प्रदान करता हूँ।
मैं सभी जीवों के उदर में पाचन अग्नि के रूप में रहता हूँ, भीतरी श्वास और प्रश्वास के संयोजन से चार प्रकार के भोजन को मिलाता और पचाता हूँ।
मैं समस्त जीवों के हृदय में निवास करता हूँ और मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और विस्मृति आती है। केवल मैं ही सभी वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, मैं वेदांत का रचयिता और वेदों का अर्थ जानने वाला हूँ।
सृष्टि में दो प्रकार के जीव हैं-क्षर और अक्षर। भौतिक जगत के सभी जीव नश्वर हैं और मुक्त जीव अविनाशी हैं।
इनके अतिरिक्त एक परम सर्वोच्च व्यक्तित्व है जो अक्षय परमात्मा है। वह तीनों लोकों में अपरिवर्तनीय नियंता के रूप में प्रवेश करता है और सभी जीवों का पालन पोषण करता है।
मैं नश्वर सांसारिक पदार्थों और यहाँ तक कि अविनाशी आत्मा से भी परे हूँ इसलिए मैं वेदों और स्मृतियों दोनों में ही दिव्य परम पुरूष के रूप में विख्यात हूँ।
वे जो संशय रहित होकर मुझे परम दिव्य भगवान के रूप में जानते हैं, वास्तव में वे पूर्ण ज्ञान से युक्त हैं। हे अर्जुन! वे पूर्ण रूप से मेरी भक्ति में तल्लीन रहते हैं।
हे निष्पाप अर्जुन! मैंने तुम्हें वैदिक ग्रंथों का अति गुह्य सिद्धान्त समझाया है। इसे समझकर मनुष्य प्रबुद्ध हो जाता है और अपने प्रयासो में परिपूर्ण हो जाता है।