अध्याय सोलह - देवासुर संपद विभाग योग
दैवीय और आसुरी प्रकृति में भेद द्वारा योग का ज्ञान
दैवसुरसम्पद् विभाग योग का अर्थ है "दैवी और आसुरी प्रवृत्तियों को समझने के माध्यम से योग"। इस अध्याय में, कृष्ण अर्जुन को मनुष्यों में मौजूद दो प्रकार के गुणों के बारे में बताते हैं: दैवी और आसुरी। वे बताते हैं कि दैवी गुण मुक्ति की ओर ले जाते हैं और आसुरी गुण बंधन की ओर ले जाते हैं। वे दोनों प्रकार के लोगों की विशेषताओं और व्यवहारों का भी वर्णन करते हैं, और वे अपने विचारों, कार्यों और लक्ष्यों में कैसे भिन्न होते हैं।
वे अर्जुन को सलाह देते हैं कि वे दैवी गुणों का पालन करें और आसुरी गुणों से बचें, और शास्त्रों को सही और गलत निर्धारित करने के लिए प्राधिकरण के रूप में अनुसरण करें। वे अर्जुन को चेतावनी देते हैं कि जो लोग आसुरी गुणों से प्रभावित होते हैं वे नारकीय परिस्थितियों में दुख भोगने के लिए अभिशप्त होते हैं, जबकि जो लोग दैवी गुणों से संपन्न होते हैं वे उनका परम धाम प्राप्त करते हैं। यह अध्याय हमें सिखाता है कि अपनी नकारात्मक प्रवृत्तियों को कैसे पहचानें और दूर करें, और सकारात्मक दृष्टिकोण और आध्यात्मिक दृष्टिकोण कैसे विकसित करें।
दैवसुरसम्पद् विभाग योग को कैसे लागू करें:
अपनी प्रवृत्तियों को पहचानें: पहला कदम अपनी नकारात्मक प्रवृत्तियों को पहचानना है। हम ऐसा अपने विचारों, शब्दों और कार्यों का निरीक्षण करके कर सकते हैं।
अपनी प्रवृत्तियों को दूर करें: एक बार जब हम अपनी नकारात्मक प्रवृत्तियों को पहचान लेते हैं, तो हम उनसे छुटकारा पाने का प्रयास कर सकते हैं। हम ऐसा सकारात्मक विचारों, शब्दों और कार्यों को अपनाकर कर सकते हैं।
सकारात्मक गुणों का विकास करें: हम दैवी गुणों का विकास करके भी अपनी चेतना को ऊपर उठा सकते हैं। कुछ दैवी गुणों में शामिल हैं: प्रेम, करुणा, दया, सहिष्णुता, क्षमा, वैराग्य, विवेक, शांति और आनंद।
शास्त्रों का अध्ययन करें: शास्त्र हमें सही और गलत निर्धारित करने में मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। हम अपने जीवन में शास्त्रों के मार्गदर्शन का पालन करके दैवी गुणों को विकसित कर सकते हैं और आसुरी गुणों से बच सकते हैं।
परम पुरुषोत्तम भगवान् ने कहाः हे भरतवंशी! निर्भयता, मन की शुद्धि, अध्यात्मिक ज्ञान में दृढ़ता, दान, इन्द्रियों पर नियंत्रण, यज्ञों का अनुष्ठान करना, धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन, तपस्या और स्पष्टवादिता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधहीनता, त्याग, शांतिप्रियता, दोषारोपण से मुक्त, सभी जीवों के प्रति करूणा भाव, लोभ से मुक्ति, भद्रता, लज्जा, अस्थिरहीनता, शक्ति, क्षमाशीलता, धैर्य, पवित्रता किसी के प्रति शत्रुता के भाव से मुक्ति और प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त होना, ये सब दिव्य प्रकृति से संपन्न लोगों के दैवीय गुण हैं।
हे पार्थ! पाखण्ड, दम्भ, अभिमान, क्रोध, निष्ठुरता और अज्ञानता आसुरी प्रकृति वाले लोगों के गुण हैं।
दैवीय गुण मुक्ति की ओर ले जाते हैं जबकि आसुरी गुण निरन्तर बंधन की नियति का कारण होते हैं। हे अर्जुन! शोक मत करो क्योंकि तुम दैवीय गुणों के साथ जन्मे हो।
संसार में दो प्रकार के प्राणी हैं-एक वे जो दैवीय गुणों से सम्पन्न हैं और दूसरे वे जो आसुरी प्रकृति के हैं। मैं दैवीय गुणों का विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ अब तुम मुझसे आसुरी स्वभाव वाले लोगों के संबंध में सुनो।
वे जो आसुरी गुणों से युक्त होते हैं वे यह समझ नहीं पाते कि उचित और अनुचित कर्म क्या हैं। इसलिए उनमें न तो पवित्रता, न ही सदाचरण और न ही सत्यता पायी जाती है।
वे कहते हैं, संसार परम सत्य से रहित और आधारहीन है तथा यह भगवान रहित है जो इसका सृष्टा और नियामक है। यह दो विपरीत लिंगों से उत्पन्न होता है और कामेच्छा के अतिरिक्त इसका कोई अन्य कारण नहीं है।
ऐसे विचारों पर स्थिर रहते हुए पथ भ्रष्ट आत्माएँ अल्प बुद्धि और क्रूर कृत्यों के साथ संसार के शत्रु के रूप में जन्म लेती हैं और इसके विनाश का जोखिम बनती है।
अतृप्त काम वासनाओं, पाखंड से पूर्ण गर्व और अभिमान में डूबे हुए आसुरी प्रवृति वाले मनुष्य अपने झूठे सिद्धान्तो से चिपके रहते हैं। इस प्रकार से वे भ्रमित होकर अशुभ संकल्प के साथ काम करते हैं।
वे ऐसी अंतहीन चिंताओं से पीड़ित रहते हैं जो मृत्यु होने पर समाप्त होती हैं फिर भी वे पूर्ण रूप से आश्वस्त रहते हैं कि कामनाओं की तृप्ति और धन सम्पत्ति का संचय ही जीवन का परम लक्ष्य है।
सैंकड़ों कामनाओं के बंधनों में पड़ कर काम वासना और क्रोध से प्रेरित होकर वे अवैध ढंग से धन संग्रह करने में जुटे रहते हैं। यह सब वे इन्द्रिय तृप्ति के लिए करते हैं।
आसुरी व्यक्ति सोचता है-"मैंने आज इतनी संपत्ति प्राप्त कर ली है और मैं इससे अपनी कामनाओं की पूर्ति कर सकूँगा। यह सब मेरी है और कल मेरे पास इससे भी अधिक धन होगा। मैंने अपने उस शत्रु का नाश कर दिया है और मैं अन्य शत्रुओं का भी विनाश करूंगा। मैं स्वयं भगवान के समान हूँ, मैं भोक्ता हूँ, मैं शक्तिशाली हूँ, मैं सुखी हूँ। मैं धनाढ्य हूँ और मेरे सगे-संबंधी भी कुलीन वर्ग से हैं। मेरे बराबर कौन है? मैं देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करूँगा, दान दूंगा, मैं सुखों का भोग करूँगा।" इस प्रकार से वे अज्ञानता के कारण मोह ग्रस्त रहते हैं।
ऐसी कल्पनाओं द्वारा पथभ्रष्ट होकर और मोह के जाल से आच्छादित तथा इन्द्रिय भोग की तृप्ति के आदी होकर वे अंधे नरक में गिरते हैं।
ऐसे आत्म अभिमानी और हठी लोग अपनी संपत्ति के मद और अभिमान में चूर होकर शास्त्रों के विधि-विधानों का आदर न करते हुए केवल नाम मात्र के लिए आडम्बर करते हुए यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं।
अहंकार, शक्ति, दम्भ, कामना और क्रोध से अंधे असुर मनुष्य अपने शरीर के भीतर और अन्य लोगों के शरीरों के भीतर मेरी उपस्थिति की निंदा करते हैं।
मानव जाति के नीच, दुष्ट और इन निर्दयी और घृणित व्यक्तियों को मैं निरन्तर भौतिक संसार के जीवन-मृत्यु के चक्र में समान आसुरी प्रकृति के गर्मों में डालता हूँ। ये अज्ञानी आत्माएँ बार-बार आसुरी प्रकृति के गर्थों में जन्म लेती हैं। मुझ तक पहुँचने में असफल होने के कारण हे अर्जुन! वे शनैः-शनैः अति अधम जीवन प्राप्त करते हैं।
काम, क्रोध और लोभ जीवात्मा को आत्म विनाश के नरक की ओर ले जाने वाले तीन द्वार हैं इसलिए सबको इनका त्याग करना चाहिए।
जो अंधकार रूपी तीन द्वारों से मुक्त होते हैं वे अपनी आत्मा के कल्याण के लिए चेष्टा करते हैं और इस प्रकार से परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
वे जो इच्छाओं के आवेग के अंतर्गत कर्म करते हैं और शास्त्रों के विधि-निषेधों को ठुकराते हैं वे न तो पूर्णताः प्राप्त करते हैं और न ही जीवन में परम लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं।
इसलिए क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए? यह निश्चित करने के लिए शास्त्रों में वर्णित विधानों को स्वीकार करो और शास्त्रों के निर्देशों व उपदेशों को समझो तथा फिर तदानुसार संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करो।