First Chapter - The evils of gambling, the virtues of dharma, and the dangers of Duryodhana's wickedness
अध्याय 1 - जुए की बुराइयाँ, धर्म के गुण और दुर्योधन की दुष्टता के खतरेChapter 1 of Vidura Niti is a dialogue between Vidura and Dhritarashtra, the blind king of the Kuru dynasty. Vidura is the half-brother of Dhritarashtra and Pandu, and the uncle of the Pandavas and the Kauravas. He is also the prime minister of the Kuru kingdom and a loyal adviser to Dhritarashtra. Vidura is renowned for his wisdom, righteousness, and devotion to dharma. He is also an incarnation of Yama, the god of death and justice, who was cursed by the sage Mandavya to be born as a human for his unjust punishment.
In this chapter, Vidura gives his advice to Dhritarashtra on various topics, such as the evils of gambling, the virtues of dharma, and the dangers of Duryodhana's wickedness. He tries to persuade Dhritarashtra to abandon his attachment to his son Duryodhana, who is the main cause of the conflict between the Pandavas and the Kauravas. He also warns Dhritarashtra of the consequences of his actions, and urges him to follow the path of dharma and peace. Some of the main points of Vidura's advice are: - Gambling is a vice that leads to the destruction of one's wealth, reputation, family, and happiness. It is also a sign of greed, ignorance, and foolishness.
Vidura tells Dhritarashtra that he should not have allowed the game of dice, in which Yudhishthira, the eldest of the Pandavas, lost his kingdom, his brothers, and his wife Draupadi to Duryodhana. He also tells him that he should not have remained silent when Draupadi was humiliated by the Kauravas in the court. He says that by doing so, he has invited the wrath of the gods and the curse of the sages. - Dharma is the supreme law that governs the universe and the human society. It is the source of happiness, prosperity, and justice. It is also the duty of every individual according to his or her varna (caste) and ashrama (stage of life).
Vidura tells Dhritarashtra that he should follow the dharma of a king, which is to protect his subjects, uphold justice, and maintain order. He also tells him that he should respect the dharma of the Pandavas, who are his nephews and rightful heirs of the throne. He says that by violating the dharma of the Pandavas, he has committed a great sin and brought misery upon himself and his family.
Duryodhana is the eldest son of Dhritarashtra and the leader of the Kauravas. He is also the main antagonist of the Mahabharata, who is driven by envy, pride, and ambition. He is the one who plots against the Pandavas, and tries to usurp their kingdom and their wife. He is also the one who rejects the peace proposals of Krishna, who comes as a messenger of the Pandavas. Vidura tells Dhritarashtra that Duryodhana is a wicked and ungrateful son, who does not care for his father, his brothers, or his kinsmen. He also tells him that Duryodhana is a fool and a coward, who does not understand the power of the Pandavas and their allies. He says that by supporting Duryodhana, he has invited the destruction of his dynasty and the war of Kurukshetra. Thus, Vidura tries to enlighten Dhritarashtra with his wise and righteous counsel, and to save him from the impending doom. However, Dhritarashtra does not heed Vidura's advice, and remains attached to his son Duryodhana. He also does not stop the war between the Pandavas and the Kauravas, which results in the death of millions of warriors and the end of the Kuru dynasty.
वैशंपायन उवाच ।
द्वाःस्थं प्राह महाप्राज्ञो धृतराष्ट्रो महीपतिः ।
विदुरं द्रष्टुमिच्छामि तमिहानय माचिरम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं- [संजय के चले जाने पर] महाबुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्र ने द्वारपाल से कहा- मैं विदुर से मिलना चाहता हूँ। उन्हें यहाँ शीघ्र बुला लाओ'॥ १ ॥
प्रहितो धृतराष्ट्रेण दूतः क्षत्तारमब्रवीत् ।
ईश्वरस्त्वां महाराजो महाप्राज्ञ दिदृक्षति ॥ २ ॥
धृतराष्ट्र का भेजा हुआ बह दूत जाकर विदुर से बोला- महामते ! हमारे स्वामी महाराज धृतराष्ट्र आपसे मिलना चाहते हैं' ॥ २ ॥
एवमुक्तस्तु विदुरः प्राप्य राजनिवेशनम् ।
अब्रवीद्धृतराष्ट्राय द्वाःस्थ मां प्रतिवेदय ॥ ३ ॥
उसके ऐसा कहने पर विदुर जी राजमहल के पास जाकर बोले-'द्वारपाल ! धृतराष्ट्रको मेरे आने की सूचना दे दो'॥ ३ ॥
द्वाःस्थ उवाच ।
विदुरोऽयमनुप्राप्तो राजेन्द्र तव शासनात् ।
द्रष्टुमिच्छति ते पादौ किं करोतु प्रशाधि माम् ॥ ४ ॥
द्वारपाल ने जाकर कहा- महाराज ! आपकी आज्ञा से विदुरजी यहाँ आ पहुँचे हैं, वे आपके चरणों का दर्शन करना चाहते हैं । मुझे आज्ञा दीजिये, उन्हें क्या कार्य बताया जाय' ॥ ४ ॥
धृतराष्ट्र उवाच ।
प्रवेशय महाप्राज्ञं विदुरं दीर्घदर्शिनम् ।
अहं हि विदुरस्यास्य नाकाल्यो जातु दर्शने ॥ ५ ॥
धृतराष्ट्र ने कहा-'महाबुद्धिमान् दूरदर्शी विदुर को भीतर ले आओ, मुझे इस विदुर से मिलने में कभी भी अड़चन नहीं है' ॥ ५ ॥
द्वाःस्थ उवाच ।
प्रविशान्तः पुरं क्षत्तर्महाराजस्य धीमतः ।
न हि ते दर्शनेऽकाल्यो जातु राजा ब्रवीति माम् ॥ ६ ॥
द्वारपाल विदुर के पास आकर बोला -'विदुरजी ! आप बुद्धिमान् महाराज धृतराष्ट्र के अन्तःपुर में प्रवेश कीजिये । महाराज ने मुझसे कहा है कि मुझे विदुर से मिलने में कभी अड़चन नहीं है' ॥ ६ ॥
वैशंपायन उवाच ।
ततः प्रविश्य विदुरो धृतराष्ट्र निवेशनम् ।
अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं चिन्तयानं नराधिपम् ॥ ७ ॥
वैशम्पायन जी कहते हैं-तदनन्तर विदुर धृतराष्ट्र के महल के भीतर जाकर चिन्ता में पड़े हुए राजासे हाथ जोड़कर बोले— ॥ ७ ॥
विदुरोऽहं महाप्राज्ञ सम्प्राप्तस्तव शासनात् ।
यदि किं चन कर्तव्यमयमस्मि प्रशाधि माम् ॥ ८ ॥
महाप्राज्ञ ! मैं विदुर हूँ, आपकी आज्ञा से यहाँ आया हूँ । यदि मेरे करने योग्य कुछ काम हो तो मैं उपस्थित हूँ, मुझे आज्ञा कीजिये' ॥ ८ ॥
धृतराष्ट्र उवाच ।
सञ्जयो विदुर प्राप्तो गर्हयित्वा च मां गतः ।
अजातशत्रोः श्वो वाक्यं सभामध्ये स वक्ष्यति ॥ ९ ॥
धृतराष्ट्रने कहा- विदुर ! बुद्धिमान् संजय आया था, मुझे बुरा-भला कहकर चला गया है । कल सभामें वह अजातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनायेगा ॥ ९ ॥
तस्याद्य कुरुवीरस्य न विज्ञातं वचो मया ।
तन्मे दहति गात्राणि तदकार्षीत्प्रजागरम् ॥ १० ॥
आज मैं उस कुरुवीर युधिष्ठिर की बात न जान सका - यही मेरे अङ्गों को जला रहा है और इसी ने मुझे अब तक जगा रखा है।। १० ॥
जाग्रतो दह्यमानस्य श्रेयो यदिह पश्यसि ।
तद्ब्रूहि त्वं हि नस्तात धर्मार्थकुशलो ह्यसि ॥ ११ ॥
तात ! मैं चिन्ता से जलता हुआ अभी तक जग रहा हैँ । मेरे लिये जो कल्याण की बात समझो, वह कहो; क्योंकि हमलोगों में तुम्हीं धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो ॥ ११ ॥
यतः प्राप्तः सञ्जयः पाण्डवेभ्यो न मे यथावन्मनसः प्रशान्तिः
।
सवेन्द्रियाण्यप्रकृतिं गतानि किं वक्ष्यतीत्येव हि मेऽद्य
चिन्ता ॥ १२ ॥
संजय जबसे पाण्डवों के यहाँ से लौटकर आया है, तबसे मेरे मनको पूर्ण शान्ति नहीं मिलती। सभी इन्द्रियाँ विकल हो रही हैं। कल वह क्या कहेगा, इसी बातकी मुझे इस समय बड़ी भरी चिन्ता हो रही है ।। १२ ॥
विदुर उवाच ।
अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम् ।
हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागराः ॥ १३ ॥
विदुरजी बोले-राजन् ! जिसका बलवान के साथ विरोध हो गया है उस साधनहीन दुर्बल मनुष्य को, जिसका सब कुछ हर लिया गया है उसको, कामी को तथा चोर को रात में जागने का रोग लग जाता है ॥ १३ ॥
कच्चिदेतैर्महादोषैर्न स्पृष्टोऽसि नराधिप ।
कच्चिन्न परवित्तेषु गृध्यन्विपरितप्यसे ॥ १४ ॥
नरेन्द्र ! कहीं आपका भी इन महान् दोषों से सम्पर्क तो नहीं हो गया है ? कहीं पराये धन के लोभ से तो आप कष्ट नहीं पा रहे हैं ? ॥ १४ ॥
धृतराष्ट्र उवाच ।
श्रोतुमिच्छामि ते धर्म्यं परं नैःश्रेयसं वचः ।
अस्मिन्राजर्षिवंशे हि त्वमेकः प्राज्ञसंमतः ॥ १५ ॥
धृतराष्ट्रने कहा-मैं तुम्हारे धर्मयुक्त तथा कल्याण करने वाले सुन्दर वचन सुनना चाहता हूँ, क्योंकि इस राजर्षिवंश में केवल तुम्हीं विद्वानों के भी माननीय हो।। १५ ॥
विदुर उवाच ।
रजा लक्षणसंपन्नस्त्रैलोक्यस्याधिपो भवेत् ।
प्रेष्यस्ते प्रेषितश्चैव धृतराष्ट्र युधिष्ठिरः ॥ १६ ॥
विदुरजी बोले-महाराज धृतराष्ट्र ! श्रेष्ठ लक्षणों से सम्पन्न राजा युधिष्ठिर तीनों लोकों के स्वामी हो सकते हैं । वे आपके आज्ञाकारी थे, पर आपने उन्हें वन में भेज दिया॥ १६ ॥
विपरीततरश्च त्वं भागधेये न संमतः ।
अर्चिषां प्रक्षयाच्चैव धर्मात्मा धर्मकोविदः ॥ १७ ॥
आप धर्मात्मा और धर्म के जानकार होते हुए भी आँखों से अन्धे होने के कारण उन्हें पहचान न सके, इसीसे उनके अत्यन्त विपरीत हो गये और उन्हें राज्य का भाग देने में आपकी सम्मति नहीं हुई ॥ १७ ॥
आनृशंस्यादनुक्रोशाद्धर्मात्सत्यात्पराक्रमात् ।
गुरुत्वात्त्वयि संप्रेक्ष्य बहून्क्लेषांस्तितिक्षते ॥ १८ ॥
युधिष्ठिर में क्रूरता का अभाव, दया, धर्म, सत्य तथा पराक्रम है; वे आप में पूज्यबुद्धि रखते हैं । इन्हीं सद्गुणों के कारण वे सोच- विचारकर चुपचाप बहुत-से क्लेश सह रहे हैं ॥ १८॥
दुर्योधने सौबले च कर्णे दुःशासने तथा ।
एतेष्वैश्वर्यमाधाय कथं त्वं भूतिमिच्छसि ॥ १९ ॥
आप दुर्योधन, शकुनि, कर्ण तथा दुःशासन-जैसे अयोग्य व्यक्तियों पर राज्य का भार रखकर कैसे ऐश्वर्य-वृद्धि चाहते हैं ? ॥ १९ ॥
आत्मज्ञानं समारंभस्तितिक्षा धर्मनित्यता ।
यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्दित उच्यते ॥ २० ॥
अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान, उद्योग, दुःख सहने की शक्ति और धर्ममें स्थिरता- ये गुण जिस मनुष्य को पुरुषार्थ से च्युत नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है॥ २० ॥
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डित लक्षणम् ॥ २१ ॥
जो अच्छे कर्मो का सेवन करता और बुरे कर्मों से दूर रहता है ,
साथ ही जो आस्तिक और श्रद्धालु है, उसके वे सद्गुण पण्डित होने
के लक्षण हैं॥ २१ ॥
क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीस्तम्भो मान्यमानिता ।
यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ २२ ॥
क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्जा, उद्दप्डता तथा अपने को पूज्य समझना-ये
भाव जिसको पुरुषार्थ से भ्रष्ट नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है
॥ २२ ॥
यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे ।
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ २३ ॥
दूसरे लोग जिसके कर्तव्य, सलाह और पहले से किये हुए विचार को
नहीं जानते, बल्कि काम पूरा होने पर ही जानते हैं, वही पण्डित
कहलाता है॥ २३ ॥
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥ २४ ॥
सदी-गर्मी, भय-अनुराग, सम्पत्ति अथवा दरिद्रता - ये जिसके कार्य
में विघ्न नहीं डालते वही पण्डित कहलाता है ॥ २४ ॥
यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते ।
कामादर्थं वृणीते यः स वै पण्डित उच्यते ॥ २५ ॥
जिसकी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थका ही अनुसरण करती है और जो भोग
को छोड़कर पुरुषार्थ का ही वरण करता है वही पण्डित कहलाता है।।
२५॥
यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते ।
न किं चिदवमन्यन्ते पण्डिता भरतर्षभ ॥ २६ ॥
विवेकपूर्ण बुद्धि वाले पुरुष शक्ति के अनुसार काम करनेकी इच्छा
रखते हैं और करते भी हैं तथा किसी वस्तु को तुच्छ समझकर उसकी
अवहेलना नहीं करते।। २६ ।।
क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्
।
नासम्पृष्टो व्यौपयुङ्क्ते परार्थे तत्प्रज्ञानं प्रथमं
पण्डितस्य ॥ २७ ॥
विद्वान् पुरुष किसी विषय को देर तक सुनता है किंतु शीघ्र ही समझ
लेता है, समझकर कर्तव्यबुद्धि से पुरुषार्थ में प्रवृत्त होता
है-कामना से नहीं; बिना पुछे दूसरे के विषय में व्यर्थ कोई बात
नहीं कहता है। उसका यह स्वभाव पण्डित की मुख्य पहचान है ॥ २७
॥
नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् ।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डित बुद्धयः ॥ २८ ॥
पण्डितों की-सी बुद्धि रखने वाले मनुष्य दुर्लभ वस्तु की कामना
नहीं करते, खोयी हुई वस्तु के विषय में शोक करना नहीं चाहते और
विपत्ति में पड़कर घबराते नहीं हैं॥ २८ ॥
निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः ।
अवन्ध्य कालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ॥ २९ ॥
जो पहले निश्चय करके फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के बीच
में नहीं रुकता, समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और चित्तको वश में
रखता है, वही पण्डित कहलाता है॥ २९ ॥
आर्य कर्मणि राज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते ।
हितं च नाभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ ॥ ३० ॥
भरतकुल-भूषण ! पण्डित जन श्रेष्ठ कर्मों में रुचि रखते हैं,
उन्नति के कार्य करते हैं तथा भलाई करने वालों में दोष नहीं
निकालते हैं ॥ ३० ॥
न हृष्यत्यात्मसंमाने नावमानेन तप्यते ।
गाङ्गो ह्रद इवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते ॥ ३१ ॥
जो अपना आदर होने पर हर्ष के मारे फूल नहीं उठता, अनादर से
संतप्त नहीं होता तथा गङ्गाजी के कुण्ड के समान जिसके चित्त को
क्षोभ नहीं होता, वह पण्डित कहलाता है॥ ३१ ॥
तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम् ।
उपायज्ञो मनुष्याणां नरः पण्डित उच्यते ॥ ३२ ॥
जो सम्पूर्ण भौतिक पदार्थो की असलियत का ज्ञान रखनेवाला सब कार्य
कि करने का ढंग जानने वाला तथा मनुष्यों में सबसे बढ़कर उपाय का
जानकार है, वही मनुष्य पण्डित कहलाता है॥ ३२ ॥
प्रवृत्त वाक्चित्रकथ ऊहवान्प्रतिभानवान् ।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च स वै पण्डित उच्यते ॥ ३३ ॥
जिसकी वाणी कहीं रुकती नहीं, जो विचित्र ढंग से बातचीत करता है,
तर्क में निपुण और प्रतिभाशाली है तथा जो ग्रन्थ के तात्पर्य को
शीघ्र बता सकता है, वही पण्डित कहलाता है ३३ ॥
श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।
असम्भिन्नार्य मर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ॥ ३४ ॥
जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का तथा
जो शिष्ट पुरुषो की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वही पण्डित'
की पदवी पा सकता है॥ ३४ ॥
अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः ।
अर्थांश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥ ३५ ॥
बिना पढ़े ही गर्व करने वाले, दरिद्र होकर भी बड़े-बड़े मनसूबे
बाँधने वाले और बिना काम किये ही धन पानेकी इच्छा रखने वाले
मनुष्य को पण्डित लोग मुर्ख कहते हैं ॥ ३५॥
स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति ।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥ ३६ ॥
जो अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरे के कर्तव्य का पालन करता है तथा मित्र के साथ असत् आचरण करता है; वह मूर्ख कहलाता है।। ३६ ॥
अकामां कामयति यः कामयानां परित्यजेत् ।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ ३७ ॥
जो न चाहने वालों को चाहता है और चाहने वालों को त्याग देता है
तथा जो अपने से बलवान के साथ बैर बाँधता है, उसे मूढ़ विचारका
मनुष्य' कहते हैं ॥ ३७ ।।
अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च ।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ ३८ ॥
जो शत्रु को मित्र बनाता और मित्र से द्वेष करते हुए उसे कष्ट पहुँचाता है तथा सदा बुरे कर्मो का आरम्भ किया करता है, उसे मूढ़ चित्तवाला' कहते हैं ॥ ३८ ॥
संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते ।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ ॥ ३९ ॥
भरतश्रेष्ठ ! जो अपने कामों को व्यर्थ ही फैलाता है, सर्वत्र सन्देह करता है तथा शीघ्र होने वाले काम में भी देर लगाता है, वह मूढ़ है ॥ ३९ ॥
श्राद्धं पितृभ्यो न ददाति दैवतानि नार्चति ।
सुहृन्मित्रं न लभते तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ ४० ॥
जो पितरों का श्राद्ध और देवताओं का पूजन नहीं करता तथा जिसे सुहृद् मित्र नहीं मिलता, उसे मूढ़ चित्तवाला' कहते हैं ॥ ४० ॥
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
विश्वसत्यप्रमत्तेषु मूढ चेता नराधमः ॥ ४१ ॥
मूढ़ चित्तवाला अधम मनुष्य बिना बुलाये ही भीतर चला आता है, बिना
बोलता है तथा अविश्वसनीय मनुष्योंपर भी विश्वास करता है।।४१ ॥
परं क्षिपति दोषेण वर्तमानः स्वयं तथा ।
यश्च क्रुध्यत्यनीशः सन्स च मूढतमो नरः ॥ ४२ ॥
स्वयं दोषयुक्त बर्ताव करते हुए भी जो दूसरे पर उसके दोष बताकर
आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थ का क्रोध करता
है, वह मनुष्य महामूर्ख है।। ४२ ॥
आत्मनो बलमाज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम् ।
अलभ्यमिच्छन्नैष्कर्म्यान्मूढ बुद्धिरिहोच्यते ॥ ४३ ॥
जो अपने बलको न समझकर बिना काम किये ही धर्म और अर्थसे विरुद्ध
तथा न पाने योग्य वस्तुकी इच्छा करता है, वह पुरुष इस संसार में
'मूढ़बुद्धि' कहलाता है ॥ ४३ ॥
अशिष्यं शास्ति यो राजन्यश्च शून्यमुपासते ।
कदर्यं भजते यश्च तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ ४४ ॥
राजन् ! जो अनधिकारी को उपदेश देता और शुन्य की उपासना करता है तथा जो कृपण का आश्रय लेता है, उसे मूढ़ चित्तवाला कहते हैं ॥ ४४॥
अर्थं महान्तमासाद्य विद्यामैश्वर्यमेव वा ।
विचरत्यसमुन्नद्धो यः स पण्डित उच्यते ॥ ४५ ॥
बहुत धन, विद्या तथा ऐश्वर्य को पाकर भी इठलाता नहीं चलता, बह
पण्डित कहलाता है ॥ ४५ ॥
एकः सम्पन्नमश्नाति वस्ते वासश्च शोभनम् ।
योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः ॥ ४६ ॥
जो अपने द्वारा भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों को बाँटे बिना
अकेले ही उत्तम भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर
क्रूर कौन होगा ॥ ४६॥
एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः ।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥ ४७ ॥
मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत-से लोग उससे मौज उड़ाते हैं।
मौज उड़ाने वाले तो छूट जाते हैं, पर उसका कर्ता ही दोष का भागी
होता है ।।४७॥
एकं हन्यान्न वाहन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता ।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद्राष्ट्रं सराजकम् ॥ ४८ ॥
किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण सम्भव है एक को भी
मारे या न मारे। मगर बुद्धिमान द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि
राजाके साथ-साथ सम्पूर्ण राष्ट्र का विनाश कर सकती है ।। ४८
।।
एकया द्वे विनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिर्वशे कुरु ।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट्सप्त हित्वा सुखी भव ॥ ४९ ॥
एक (बुद्धि) से दो (कर्तव्य और अकर्तव्य) का निश्चय करके चार
(साम, दान, भेद, दपण्ड) से तीन (शत्रु, मित्र, तथा उदासीन) को वश
में कीजिये। पाँच (इन्द्रियों) को जीतकर छः (सन्धि विग्रह, यान,
आसन, द्वैधीभाव और समाश्रयरूप) गुणों को जानकर तथा सात (स्त्री,
जूआ, मृगया, मद्य, कठोर वचन, दण्ड की कठोरता और अन्याय से धन का
उपार्जन) को छोड़कर सुखी हो जाइये ॥ ४९ ॥
एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते ।
सराष्ट्रं स प्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविस्रवः ॥ ५० ॥
विष का रस एक (पीने वाले) को ही मारता है, शस्त्र से एक का ही वध
होता है, किंतु मन्त्र का फूटना राष्ट्र और प्रजा के साथ ही राजा
का भी विनाश कर डालता है॥ ५० ॥
एकः स्वादु न भुञ्जीत एकश्चार्थान्न चिन्तयेत् ।
एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात् ॥ ५१ ॥
अकेले स्वादिष्ट भोजन न करे, अकेला किसी विषय का निश्चय न करे,
अकेला रास्ता न चले और बहुत-से लोग सोये हों तो उनमें अकेला न
जागता रहे ।। ५१ ।।
एकमेवाद्वितीयं तद्यद्राजन्नावबुध्यसे ।
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव ॥ ५२ ॥
राजन् ! जैसे समुद्र के पार जाने के लिये नाव ही एकमात्र साधन
है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिये सत्य ही एकमात्र सोपान है, दूसरा
नहीं, किंतु आप इसे नहीं समझ रहे हैं ॥ ५२ ॥
एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपलभ्यते ।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ॥ ५३ ॥
क्षमाशील पुरुषों में एक ही दोष का आरोप होता है, दूसरे की तो
सम्भावना ही नहीं है। वह दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्य को लोग
असमर्थ समझ लेते हैं ॥ ५३ ॥
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम् ।
क्षमा गुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं तथा ॥ ५४ ॥
किंतु क्षमाशील पुरुष का वह दोष नहीं मानना चाहिये; क्योंकि
क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण तथा
समर्थों का भूषण है ॥ ५४ ॥
क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते ।
शान्तिशङ्खः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः ॥ ५५ ॥
इस जगत में क्षमा वशीकरणरूप है । भला, क्षमा से क्या नहीं सिद्ध
होता ? जिसके हाथ में शान्ति रूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरुष
क्या कर लेंगे ? ॥ ५५॥
अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ।
अक्षमावान्परं दोषैरात्मान्ं चैव योजयेत् ॥ ५६ ॥
तृणरहित स्थान में गिरी हुई आग अपने-आप बुझ जाती है । क्षमाहीन
पुरुष अपने को तथा दूसरे को भी दोष का भागी बना लेता है ॥ ५६॥
एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।
विद्यैका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥ ५७ ॥
केवल धर्म ही परम कल्याणकारक हैं, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का
सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम सन्तोष देनेवाली है और
एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है॥ ५७ ॥
द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव ।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ ५८ ॥
बिल में रहने वाले मेढक आदि जीवों को जैसे साँप खा जाता है, उसी
प्रकार यह पृथ्वी शत्रु से विरोध न करने वाले राजा और परदेश-सेवन
न करने वाले ब्राह्मण-इन दोनों को खा जाती है ॥ ५८ ॥
द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिँल्लोके विरोचते ।
अब्रुवन्परुषं किं चिदसतो नार्थयंस्तथा ॥ ५९ ॥
जरा भी कठोर न बोलना और दुष्ट पुरुषों का आदर न करना-इन दो कर्मो
को करने वाला मनुष्य इस लोक में विशेष शोभा पाता है ॥ ५९ ॥
द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्यय कारिणौ ।
स्त्रियः कामित कामिन्यो लोकः पूजित पूजकः ॥ ६० ॥
दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गये पुरुष की कामना करने वाली
स्त्रियाँ तथा दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्य का आदर करने वाले
पुरुष- ये दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्वास करके चलने वाले
हैं ॥ ६० ॥
द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषणौ ।
यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः ॥ ६१ ॥
जो निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तु की इच्छा रखता और असमर्थ होकर
भी क्रोध करता है-ये दोनों ही अपने शरीर को सुखा देने वाले
काँटों के समान हैं ॥ ६१ ॥
द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा ।
गृहस्थश्च निरारंभः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ॥ ६२ ॥
दो ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते- अकर्मण्य गृहस्थ
और प्रपञ्च में लगा हुआ संन्यासी ॥ ६२ ॥
द्वाविमौ पुरुषौ राजन्स्वर्गस्य परि तिष्ठतः ।
प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥ ६३ ॥
राजन् ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते
हैं-शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी
दान देने वाला ॥ ६३ ॥
न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ ।
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥ ६४ ॥
न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धन के दो ही दुरुपयोग समझने
चाहिये-अपात्र को देना और सत्पात्र को न देना ॥ ६४ ॥
द्वावंभसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढं शिलाम् ।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम् ॥ ६५ ॥
जो धनी होने पर भी दान न दे और दरिद्र होने पर भी कष्ट सहन न कर सके -इन दो प्रकार के मनुष्यों को गले में मजबूत पत्थर बाँधकर पानी में डुबा देना चाहिये । ६५ ॥
द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सुर्यमण्डलभेदिनौ ।
परिव्राड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ॥ ६६ ॥
पुरुषश्रेष्ठ ! ये दो प्रकार के पुरुष सूर्यमण्डल को भेदकर ऊर्ध्वगति को प्राप्त होते हैं-योगयुक्त संन्यासी और संग्राम में लोहा लेते हुए मारा गया योद्धा ॥ ६६ ॥
त्रयो न्याया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ ।
कनीयान्मध्यमः श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः ॥ ६७ ॥
भरतश्रेष्ठ ! मनुष्यों की कार्य सिद्धि के लिये उत्तम, मध्यम और अधम—ये तीन प्रकार के न्यायानुकूल उपाय सुने जाते हैं, ऐसा वेदवेत्ता विद्वान् जानते हैं॥ ६७॥
त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः ।
नियोजयेद्यथावत्तांस्त्रिविधेष्वेव कर्मसु ॥ ६८ ॥
राजन् ! उत्तम, मध्यम और अधम—ये तीन प्रकारके पुरुष होते हैं, इनको यथायोग्य तीन ही प्रकार के कर्मोमें लगाना चाहिये ।। ६८ ॥।
त्रय एवाधना राजन्भार्या दासस्तथा सुतः ।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम् ॥ ६९ ॥
राजन् ! तीन ही धनके अधिकारी नहीं माने जाते-स्त्री, पुत्र तथा दास। ये जो कुछ कमाते हैं, वह धन उसीका होता है जिसके अधीन ये रहते हैं। ६९ ॥
हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम् ।
सुहृदश्च परित्यागस्त्रयो दोषा क्षयावहः ॥ ७० ॥
दूसरे के धन का हरण, दूसरे की स्त्री का संसर्ग तथा सुहृद् मित्र का परित्याग-ये तीनों ही दोष, नाश करने वाले होते हैं।। ७० ॥
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ ७१ ॥
काम, क्रोध और लोभ- ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे हैं, अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिये ।। ७१ ॥
वरप्रदानं राज्यां च पुत्रजन्म च भारत ।
शत्रोश्च मोक्षणं कृच्छ्रात्त्रीणि चैकं च तत्समम् ॥ ७२ ॥
भारत ! वरदान पाना, राज्य की प्राप्ति और पुत्र का जन्म- ये तीन एक ओर और शत्रु के कष्ट से छूटना-यह एक तरफ; वे तीन और यह एक बराबर ही है । ७२ ॥
भक्तं च बजमानं च तवास्मीति वादिनम् ।
त्रीनेतान् शरणं प्राप्तान्विषमेऽपि न सन्त्यजेत् ॥ ७३ ॥
भक्त, सेवक तथा मैं आपका ही हूँ, ऐसा कहने वाले- इन तीन प्रकार के शरणागत मनुष्यों को संकट पड़ने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये।। ७३ ॥
चत्वारि राज्ञा तु महाबलेन वर्ज्यान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात्
।
अल्पप्रज्ञैः सह मन्त्रं न कुर्यान् न दीर्घसूत्रैरलसैश्चारणैश्च
॥ ७४ ॥
थोड़ी बुद्धिवाले, दीर्षसूत्री, जल्दबाज और स्तुति करने वाले लोगों के साथ गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये- ये चारों महाबली राजा के लिये त्यागने योग्य बताये गये हैं । विद्वान् पुरुष ऐसे लोगों को पहचान ले । ७४ ।।
चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थ धर्मे ।
वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या ॥ ७५ ॥
तात ! गृहस्थ-धर्म में स्थित लक्ष्मीवान् आपके घर में चार प्रकार के मनुष्यों को सदा रहना चाहिये-अपने कुटुम्ब का बूढ़ा, संकट में पड़ा हुआ उच्च कुल का मनष्य, धनहीन मित्र और बिना सन्तान की बहिन ॥ ७५॥
चत्वार्याह महाराज सद्यस्कानि बृहस्पतिः ।
पृच्छते त्रिदशेन्द्राय तानीमानि निबोध मे ॥ ७६ ॥
महाराज ! इन्द्र के पूछने पर उनसे बृहस्पतिजी ने जिन चारों को तत्काल फल देने वाला बताया था, उन्हें आप मुझसे सुनिये- ॥ ७६॥
देवतानां च सङ्कल्पमनुभावं च धीमताम् ।
विनयं कृतविद्यानां विनाशं पापकर्मणाम् ॥ ७७ ॥
देवताओं का सङ्कल्प, बुद्धिमानों का प्रभाव, विद्वानों की नम्रता और पापियों का विनाश ॥ ७७ ॥
चत्वारि कर्माण्यभयङ्कराणि भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि ।
मानाग्निहोत्रं उत मानमौनं मानेनाधीतमुत मानयज्ञः ॥ ७८ ॥
चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं; किन्तु वे ही यदि ठीक तरह से सम्पादित न हों तो भय प्रदान करते हैं। वे कर्म हैं-आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्वाध्याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्टान ॥ ७८ ।।
पञ्चाग्नयो मनुष्येण परिचर्याः प्रयत्नतः ।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ ॥ ७९ ॥
भरतश्रेष्ठ ! पिता, माता, अमि, आत्मा और गुरु- मनुष्य को इन पॉँच अग्नियों की बड़े यत्नसे सेवा करनी चाहिये ७९ ॥
पञ्चैव पूजयँल्लोके यशः प्राप्नोति केवलम् ।
देवान्पितॄन्मनुष्यांश्च भिक्षूनतिथिपञ्चमान् ॥ ८० ॥
देवता, पितर, मनुष्य, संन्यासी और अतिथि- इन पाँचों की पूजा करने वाला मनुष्य शुद्ध यश प्राप्त करता है। ८० ॥
पञ्च त्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि ।
मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः ॥ ८१ ॥
राजन् ! आप जहाँ-जहाँ जायँगे वहाँ-वहाँ मित्र- शत्रु, उदासीन, आश्रय देने वाले तथा आश्रय पाने वाले - ये पाँच आप के पीछे लगे रहेंगे।। ८१ ॥
पञ्चेन्द्रियस्य मर्त्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् ।
ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा दृतेः पादादिवोदकम् ॥ ८२ ॥
पाँच ज्ञानेन्द्रियों वाले पुरुष की यदि एक भी इन्द्रिय छिद्र (दोष) युक्त हो जाय तो उससे उसकी बुद्धि इस प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशक के छेद से पानी ॥ ८२ ॥
षड्दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्री भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥ ८३ ॥
ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले पुरुषों को नींद, तन्द्रा (ऊँघना), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घ सूत्रता (जल्दी हो जाने वाले काम में अधिक देर लगाने की आदत)-इन छः दुर्गुणों को त्याग देना चाहिये ॥ ८३ ॥
षडिमान्पुरुषो जह्याद्भिन्नां नावमिवार्णवे ।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम् ॥ ८४ ॥ अरक्षितारं राजानं
भार्यां चाप्रिय वादिनीम् ।
ग्रामकारं च गोपालं वनकामं च नापितम् ॥ ८५ ॥
उपदेश न देनेवाले आचार्य, मन्त्रोच्यारण न करनेवाले होता, रक्षा करने में असमर्थ राजा, कटु वचन बोलनेवाली स्त्री ग्राम में रहने की इच्छा वाले ग्वाले तथा वनमें रहनेकी इच्छावाले नाई-इन छःको उसी भाँति छोड़ दे. जैसे उपदेश न देने वाले आचार्य, मन्त्रोच्चारण न करनेवाले होता, रक्षा करनेमें असमर्थ राजा, कटु वचन बोलने वाली स्त्री, ग्राम में रहनेकी इच्छावाले ग्वाले तथा बनमें रहने की इच्छा वाले नाई-इन छःको उसी भाँति छोड़ दे, जैसे समुद्र की सैर करने वाला मनुष्य फटी हुई नाव का परित्याग कर देता है ।। ८४-८५ ।
षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन ।
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥ ८६ ॥
मनुष्य को कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव), क्षमा तथा धैर्य-इन छः गुणों का त्याग नहीं करना चाहिये॥ ८६ ॥।
अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च ।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥ ८७
॥
राजन् ! धनकी आय, नित्य नीरोग रहना, स्त्री का अनुकूल तथा प्रियवादिनी होना, पुत्रका आज्ञा के अन्दर रहना तथा धन पैदा करने वाली विद्या का ज्ञान-ये छः बातें इंस मनुष्य लोक में सुखदायिनी होती हैं। । ८७ ॥
षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योऽधिगच्छति ।
न स पापैः कुतोऽनर्थैर्युज्यते विजितेन्द्रियः ॥ ८८ ॥
मनमें नित्य रहने वाले छः शत्रु-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य कों जो वशमें कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्त नहीं होता, फिर उनसे उत्पन्न होने वाले अनर्थों की तो बात ही क्या है॥ ८८ ॥
षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते ।
चोराः प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः ॥ ८९ ॥ प्रमदाः
कामयानेषु यजमानेषु याजकाः ।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः ॥ ९० ॥
निम्नाङ्कित छः प्रकार के मनुष्य छः प्रकार के लोगों से अपनी जीविका चलाते हैं, सातवें की उपलब्धि नहीं होती। चोर असावधान पुरुष से, वैद्य रोगी से, मतवाली स्त्रियाँ कामियों से, पुरोहित यजमानों से, राजा झगड़ने वालों से तथा विद्वान् पुरुष मूरखों से अपनी जीविका चलाते हैं ॥ ८९-९० ।॥।
षडिमानि विनश्यन्ति मुहूर्तमनवेक्षणात् ।
गावः सेवा कृषिर्भार्या विद्या वृषलसंगतिः ॥ ९१ ॥
क्षणभर भी देख-रेख न करने से गौ, सेवा, खेती, स्त्री विद्या तथा शूद्रों से मेल-ये छः चीजें नष्ट हो जाती हैं ॥ ९१ ॥
षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम् ।
आचार्यं शिक्षिता शिष्याः कृतदारश्च मातरम् ॥ ९२ ॥ नारिं
विगतकामस्तु कृतार्थाश्च प्रयोजकम् ।
नावं निस्तीर्णकान्तारा नातुराश्च चिकित्सकम् ॥ ९३ ॥
ये छः सदा अपने पूर्व उपकारी का अनादर करते हैं-शिक्षा समाप्त हो जाने पर शिष्य आचार्य का, विवाहित बेटे माता का, कामवासना की शान्ति हो जानेपर मनुष्य स्त्री का, कृत कार्य पुरुष सहायक का, नदी की दुर्गम धारा पार कर लेने वाले पुरुष नावका तथा रोंगी पुरुष रोग छूटने के बाद वैद्य का तिरस्कार कर देते हैं १२-९३ ॥
आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सद्भिर्मनुष्यैः सह संप्रयोगः ।
स्वप्रत्यया वृत्तिरभीतवासः षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥ ९४ ॥
राजन् ! नीरोग रहना, ऋणी न होना, परदेश में न रहना, अच्छे लोगों के साथ मेल होना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निडर होकर रहना-ये छः मनुष्य लोक के सुख हैं।॥ १४ ॥
ईर्षुर्घृणी नसन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः ।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥ ९५ ॥
ईष्ष्या करने वाला, घृणा करनेवाला, असन्तोषी, क्रोधी, सदा शङ्कित रहनेवाला और दूसरे के भाग्य पर जीवन-निर्वाह करनेवाला - ये छः सदा दुःखी रहते हैं ॥ ९५ ॥
सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः ।
प्रायशो यैर्विनश्यन्ति कृतमूलाश्च पार्थिवाः ॥ ९६ ॥
स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं वाक्पारुष्यं च पञ्चमम् ।
महच्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च ॥ ९७ ॥
स्त्रीविषयक आसक्ति, जूआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता, अत्यन्त कठोर दण्ड देना और धनका दुरुपयोग करना-ये सात दुःखदायी दोष राजा को सदा त्याग देने चाहिये। इनसे दृढ़मूल राजा भी प्रायः नष्ट हो जाते हैं ॥ ९६-९७ ।।
अष्टौ पूर्वनिमित्तानि नरस्य विनशिष्यतः ।
ब्राह्मणान्प्रथमं द्वेष्टि ब्राह्मणैश्च विरुध्यते ॥ ९८ ॥
ब्राह्मण स्वानि चादत्ते ब्राह्मणांश्च जिघांसति ।
रमते निन्दया चैषां प्रशंसां नाभिनन्दति ॥ ९९ ॥ नैतान्स्मरति
कृत्येषु याचितश्चाभ्यसूयति ।
एतान्दोषान्नरः प्राज्ञो बुद्ध्या बुद्ध्वा विवर्जयेत् ॥ १०० ॥
विनाश के मुख में पड़ने वाले मनुष्य के आठ पूर्वचिह्न हैं-प्रथम तो वह ब्राह्मणों से द्वेष करता है, फिर उनके विरोधका पात्र बनता है, ब्राह्मणों का धन हड़प लेता है, उनको मारना चाहता है, ब्राह्मणों की निन्दा में आनन्द मानता है, उनकी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता, यज्ञ-यागादि में उनका स्मरण नहीं करता तथा कुछ माँगने पर उनमें दोष निकालने लगता है । इन सब दोषों को बुद्धिमान् मनुष्य समझे और समझकर त्याग दे ॥ ९८-१०० ॥
अष्टाविमानि हर्षस्य नव नीतानि भारत ।
वर्तमानानि दृश्यन्ते तान्येव सुसुखान्यपि ॥ १०१ ॥ समागमश्च
सखिभिर्महांश्चैव धनागमः ।
पुत्रेण च परिष्वङ्गः संनिपातश्च मैथुने ॥ १०२ ॥ समये च
प्रियालापः स्वयूथेषु च संनतिः ।
अभिप्रेतस्य लाभश्च पूजा च जनसंसदि ॥ १०३ ॥
भारत ! मित्रों से समागम, अधिक धनकी प्राप्ति, पुत्र का आलिङ्गन,
मैथुन में प्रवृत्ति, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के
लोगों में उन्नति, अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति और जन समाज में
सम्मान-ये आठ हर्ष के सार दिखायी देते हैं और ये ही अपने लौकिक
सुख के भी साधन होते हैं।। १०१-१०३ ॥
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च
।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥ १०४ ॥
बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न
बोलना, হাक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता-ये आठ गुण पुरुष की
ख्याति बढ़ा देते हैं। १०४ ॥
नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्च साक्षिकम् ।
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं विद्वान्यो वेद स परः कविः ॥ १०५ ॥
जो विद्वान् पुरुष [आँख, कान आदि] नौ दरवाजे वाले, तीन (वात,
पित्त, कफरूपी) खम्भों वाले, पाँच (ज्ञानेन्द्रियरूप) साक्षीवाले
आत्मा के निवास स्थान इस शरीर रूपी गृहको जानता है, वह बहुत बड़ा
ज्ञानी है॥ १०५ ॥
दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान् ।
मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ॥ १०६ ॥
त्वरमाणश्च भीरुश्च लुब्धः कामी च ते दश ।
तस्मादेतेषु भावेषु न प्रसज्जेत पण्डितः ॥ १०७ ॥
महाराज धृतराष्ट्र ! दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते, उनके
नाम सुनो । नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी,
भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी-ये दस हैं। अतः इन सब लोगों
में विद्वान् पुरुष आसक्ति न बढ़ावे ॥ १०६-१०७ ।।
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
पुत्रार्थमसुरेन्द्रेण गीतं चैव सुधन्वना ॥ १०८ ॥
इसी विषय में असुरों के राजा प्रह्लादने सुधन्वा के साथ अपने
पुत्र के प्रति कुछ उपदेश दिया था। नीतिज्ञ लोग उस पुराने इतिहास
का उदाहरण देते हैं । १०८ ॥
यः काममन्यू प्रजहाति राजा पात्रे प्रतिष्ठापयते धनं च ।
विशेषविच्छ्रुतवान्क्षिप्रकारी तं सर्वलोकः कुरुते प्रमाणम् ॥
१०९ ॥
जो राजा काम और क्रोध का त्याग करता है और सुपात्र को धन देता
है, विशेषज्ञ है, शास्त्रों का ज्ञाता और कर्तव्य को शीघ्र पूरा
करने वाला है, उसे सब लोग प्रमाण मानते हैं।। १०९ ॥
जानाति विश्वासयितुं मनुष्यान् विज्ञात दोषेषु दधाति दण्डम् ।
जानाति मात्रां च तथा क्षमां च तं तादृशं श्रीर्जुषते समग्रा ॥
११० ॥
जो मनुष्यों में विश्वास उत्पन्न करना जानता है, जिनका अपराध
प्रमाणित हो गया है, उन्हीं को दण्ड देता है, जो दण्ड देनेकी
न्यूनाधिक मात्रा तथा क्षमा का उपयोग जानता है, उस राजाकी सेवा
में सम्पूर्ण सम्पत्ति चली आती है।। ११० ।
सुदुर्बलं नावजानाति कंचिद्- युक्तो रिपुं सेवते बुद्धिपूर्वम्
।
न विग्रहं रोचयते बलस्थैः काले च यो विक्रमते स धीरः ॥ १११ ॥
जो किसी दुर्बल का अपमान नहीं करता, सदा सावधान रहकर शत्रुके साथ
बुद्धिपूर्वक व्यवहार करता है, बलवानों के साथ युद्ध पसन्द नहीं
करता तथा समय आने पर पराक्रम दिखाता है, वही धीर है । १११ ॥
प्राप्यापदं न व्यथते कदा चिद् उद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः ।
दुःखं च काले सहते जितात्मा धुरन्धरस्तस्य जिताः सपत्नाः ॥ ११२
॥
जो धुर्धर महापुरुष आपत्ति पड़ने पर कभी दुःखी नहीं होता, बल्कि
सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय पर दुःख सहता
है, उसके शत्रु तो पराजित ही हैं।। ११२ ।।
अनर्थकं विप्र वासं गृहेभ्यः पापैः सन्धिं परदाराभिमर्शम् ।
दम्भं स्तैन्यं पैशुनं मद्य पानं न सेवते यः स सुखी सदैव ॥ ११३
॥
जो निरर्थक विदेशवास, पापियों से मेल, परख्त्रीगमन, पाखण्ड,
चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान नहीं करता, वह सदा सुखी रहता है।।
११३ ॥
न संरम्भेणारभतेऽर्थवर्गम् आकारितः शंसति तथ्यमेव ।
न मात्रार्थे रोचयते विवादं नापूजितः कुप्यति चाप्यमूढः ॥ ११५ ॥
न योऽभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं करोति ।
नात्याह किं चित्क्षमते विवादं सर्वत्र तादृग्लभते प्रशंसाम् ॥
११५ ॥
जो क्रोध या उतावली के साथ धर्म, अर्थ तथा कामका आरम्भ नहीं
करता, पूछने पर यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्र के लिये झगड़ा
नहीं पसन्द करता, आदर न पानेपर क्रुद्ध नहीं होता, बिवेक नहीं खो
बैठता, दूसरों के दोष नहीं देखता, सब पर दया करता है, दुर्बल
होते हुए किसी की जमानत नहीं देता, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवाद
को सह लेता है, ऐसा मनुष्य सब जगह प्रशंसा पाता ॥ ११४-११५॥
यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्थतेऽन्यान् ।
न मूर्च्छितः कटुकान्याह किं चित् प्रियं सदा तं कुरुते जनोऽपि ॥
११६ ॥
जो कभी उद्दण्ड का-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने
पराक्रम की भी डींग नहीं हाँकता, क्रोधसे व्याकुल होनेपर भी
कटुवचन नहीं बोलता, उस मनुष्य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं
११६ ॥
न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं न दर्ममारोहति नास्तमेति ।
न दुर्गतोऽस्मीति करोति मन्युं तमार्य शीलं परमाहुरग्र्यम् ॥ ११७
॥
जो शान्त हुई वैर की आग को फिर प्रज्वलित नहीं करता, गर्व नहीं
करता, हीनता नहीं दिखाता तथा मैं विपत्ति में पड़ा हूँ,' ऐसा
सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम आचरण वाले पुरुषको आर्यजन
सर्वश्रेष्ठ कहते है ॥ ११७ ॥
न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं नान्यस्य दुःखे भवति प्रतीतः
।
दत्त्वा न पश्चात्कुरुतेऽनुतापं न कत्थते सत्पुरुषार्य शीलः ॥
११८ ॥
जो अपने सुखमें प्रसन्न नहीं होता, दूसरे के दुःख के समय हर्ष
नहीं मानता और दान देवर पश्चात्ताप नहीं करता; वह सजन में
सदाचारी कहलाता है ॥ ११८ ॥
देशाचारान्समयाञ्जातिधर्मान् बुभूषते यस्तु परावरज्ञः ।
स तत्र तत्राधिगतः सदैव महाजनस्याधिपत्यं करोति ॥ ११९ ॥
जो मनुष्य देश के व्यवहार, लोकाचार तथा जातियोंके धर्मो को जानने
की इच्छा करता है, उसे उत्तम-अधम का विवेक हो जाता है । वह जहाँ
कहीं भी जाता है; सदा महान् जनसमूह पर अपनी प्रभुता स्थापित कर
लिता है ॥ ११९ ॥
दम्भं मोहं मत्सरं पापकृत्यं राजद्विष्टं पैशुनं पूगवैरम् ।
मत्तोन्मत्तैर्दुर्जनैश्चापि वादं यः प्रज्ञावान्वर्जयेत्स
प्रधानः ॥ १२० ॥
जो बुद्धिमान् दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह,
चुगलखोरी, समूह से वैर और मतवाले, पागल तथा दुर्जनों से विवाद
छोड़ देता है, वह श्रेष्ठ है ।। १२० ॥।
दमं शौचं दैवतं मङ्गलानि प्रायश्चित्तं विविधाँल्लोकवादान् ।
एतानि यः कुरुते नैत्यकानि तस्योत्थानं देवता राधयन्ति ॥ १२१
॥
जो दान होम, देवपूजन, माङ्गलिक कर्म, प्रायक्चित्त तथा अनेक
प्रकार के लौकिक आचार - इन नित्य किये जाने योग्य कर्म को करता
है, देवता लोग उसके अभ्युदय की सिद्धि करते हैं । १२१ ।।
समैर्विवाहं कुरुते न हीनैः समैः सख्यं व्यवहारं कथाश्च ।
गुणैर्विशिष्टांश्च पुरो दधाति विपश्चितस्तस्य नयाः सुनीताः ॥
१२२ ॥
जो अपने बराबर वालों के साथ विवाह, मित्रता, व्यवहार तथा बावचीत
करता है, हीन पुरुषों के साथ नहीं, और गुणों में बढ़े-चढ़े
पुरुषों को सदा आगे रखता है, उस विद्वान की नीति श्रेष्ठ है ।
१२२ ॥
मितं भुङ्क्ते संविभज्याश्रितेभ्यो मितं स्वपित्यमितं कर्मकृत्वा
।
ददात्यमित्रेष्वपि याचितः सं- स्तमात्मवन्तं प्रजहात्यनर्थाः ॥
१२३ ॥
जो अपने आश्रितजनों को बाँटकर थोड़ा ही भोजन करता है, बहुत अधिक
काम करके भी थोड़ा सोता है तथा माँगने पर जो मित्र नहीं है, उसे
भी धन देता है, उस मनस्वी पुरुष को सारे अनर्थ दूर से ही छोड़
देते हैं ॥ १२३ ॥
चिकीर्षितं विप्रकृतं च यस्य नान्ये जनाः कर्म जानन्ति किं चित्
।
मन्त्रे गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च स्वल्पो नास्य व्यथते कश्चिदर्थः
॥ १२४ ॥
जिसके अपनी इच्छा के अनुकूल और दूसरों की इच्छा के विरुद्ध
कार्यको दूसरे लोग कुछ भी नहीं जान पाते, मन्त्र गुप्त रहने और
अभीष्ट कार्य का ठीक-ठीक सम्पादन होने के कारण उसका थोड़ा भी काम
बिगड़ने नहीं मन्त्रे गुप्ते पाता ॥ १२४ ॥
यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः सत्यो मृदुर्दानकृच्छुद्ध भावः ।
अतीव सञ्ज्ञायते ज्ञातिमध्ये महामणिर्जात्य इव प्रसन्नः ॥ १२५
॥
जो मनुष्य सम्पूर्ण भूतों को शान्ति प्रदान करने में तत्पर,
सत्यवादी, कोमल, दूसरों को आदर देने वाला तथा पवित्र विचार वाला
होता है, वह अच्छी: खान से निकले और चमकते हुए श्रेष्ठ रल्न की
भाँति अपनी जाति वालो में अधिक प्रसिद्धि पाता है।। १२५।॥।
य आत्मनापत्रपते भृशं नरः स सर्वलोकस्य गुरुर्भवत्युत ।
अनन्त तेजाः सुमनाः समाहितः स्वतेजसा सूर्य इवावभासते ॥ १२६ ॥
जो स्वयं ही अधिक लज्जाशील है, वह सब लोगों में श्रेष्ठ समझा
जाता वह अपने अनन्त तेज, शुद्ध हृदय एवं एकाग्रता से युक्त
होनेके कारण कान्ति में सूर्य के समान शोभा पाता हैं॥ १२६ ॥
वने जाताः शापदग्धस्य राज्ञः पाण्डोः पुत्राः पञ्च पञ्चेन्द्र
कल्पाः ।
त्वयैव बाला वर्धिताः शिक्षिताश्च तवादेशं पालयन्त्याम्बिकेय ॥
१२७ ॥
अम्बिकानन्दन ! शाप से दग्ध राजा पाण्डुके जो पाँच पुत्र वन में
उत्पन्न हुए; वे पांच इन्द्रो के समान शक्तिशाली हैं, उन्हें
आपहीने बचपन से पाला और शिक्षा दी है, वे भी सदा आपकी आज्ञा का
पालन करते रहते हैं। १२७ ।।
प्रदायैषामुचितं तात राज्यं सुखी पुत्रैः सहितो मोदमानः ।
न देवानां नापि च मानुषाणां भविष्यसि त्वं तर्कणीयो नरेन्द्र ॥
१२८ ॥
तात ! उन्हें उनका न्यायोचित राज्यभाग देकर आप अपने पुत्रो के
साथ आनन्द भोगिये। नरेन्द्र ! ऐसा करने पर आप देवता या मनुष्यों
की टीका-टिप्पणी के विषय नहीं रह जायेगे ।। १२८ ।।
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि प्रजागरपर्वणि विदुरनीतिवाक्ये त्रयस्त्रंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥