Second Chapter - The importance of peace, the benefits of friendship with the Pandavas, and the futility of war

अध्याय 2 - शांति का महत्व, पांडवों से मित्रता का लाभ और युद्ध की निरर्थकता

In Chapter 2, Vidura gives his advice to Dhritarashtra on various topics, such as the importance of peace, the benefits of friendship with the Pandavas, and the futility of war.

Peace is the highest good for a king and his subjects. It is the source of happiness, prosperity, and security. It is also the duty of a king to maintain peace and harmony in his kingdom and with his neighbors. Vidura tells Dhritarashtra that he should seek peace with the Pandavas, who are his nephews and rightful heirs of the throne. He also tells him that he should not listen to the evil counsels of Duryodhana, Shakuni, Karna, and others, who are instigating him to wage war against the Pandavas. He says that by doing so, he will only bring ruin and misery upon himself and his family.

Friendship is the best relation between two parties. It is based on mutual trust, respect, and affection. It is also beneficial for both parties, as it provides support, protection, and cooperation. Vidura tells Dhritarashtra that he should befriend the Pandavas, who are his kinsmen and allies. He also tells him that he should not envy or hate the Pandavas, who are virtuous, powerful, and favored by the gods. He says that by doing so, he will only alienate and antagonize the Pandavas, who are capable of defeating him and his sons.

War is the worst calamity for a king and his subjects. It is the cause of death, destruction, and sorrow. It is also the result of greed, pride, and ambition. Vidura tells Dhritarashtra that he should avoid war with the Pandavas, who are his relatives and friends. He also tells him that he should not be deluded by the false hopes of victory, which are based on the numerical strength of his army and the deceitful tactics of his advisers. He says that by doing so, he will only face defeat and disgrace at the hands of the Pandavas, who are supported by Krishna, the supreme lord and the master of all.

धृतराष्ट्र उवाच । जाग्रतो दह्यमानस्य यत्कार्यमनुपश्यसि । तद्ब्रूहि त्वं हि नस्तात धर्मार्थकुशलः शुचिः ॥ १ ॥

धृतराष्ट्र बोले- तात ! मैं चिन्ता से जलता हुआ अभी तक जाग रहा हूँ, तुम मेरे करने योग्य जो कार्य समझो, उसे बताओ; क्योंकि हम लोगों में तुम्हीं चर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो ॥ १ ॥

त्वं मां यथावद्विदुर प्रशाधि प्रज्ञा पूर्वं सर्वमजातशत्रोः । यन्मन्यसे पथ्यमदीनसत्त्व श्रेयः करं ब्रूहि तद्वै कुरूणाम् ॥ २ ॥

उदारचित्त विदुर ! तुम अपनी बुद्धि से विचारकर मुझे ठीक-ठीक उपदेश करो । जो बात युधिष्ठिर के लिये हितकर और कौरवों के लिये कल्याणकारी समझो, वह सब अवश्य बताओ ॥ २ ॥

पापाशङ्गी पापमेव नौपश्यन् पृच्छामि त्वां व्याकुलेनात्मनाहम् । कवे तन्मे ब्रूहि सर्वं यथावन् मनीषितं सर्वमजातशत्रोः ॥ ३ ॥

विद्वन् ! मेरे मनमें अनिष्ट की आशङ्का बनी रहती है, इसलिये में सर्वत्र अनिष्ट ही देखता हूँ, अतः व्याकुल हृदयसे में तुमसे पूछ रहा हूँ अजातशत्रु युधिष्ठिर क्या चाहते हैं ? सो सब ठीक-ठीक बताओ ।। ३ ॥

विदुर उवाच । शुभं वा यदि वा पापं द्वेष्यं वा यदि वा प्रियम् । अपृष्टस्तस्य तद्ब्रूयाद्यस्य नेच्छेत्पराभवम् ॥ ४ ॥

विदुरजी ने कहा-मनुष्यों को चाहिये कि वह जिसकी पराजय नहीं चाहता, उसको बिना पूछे भी कल्याण करने वाली या अनिष्ट करने वाली अच्छी अथवा बुरी- जो भी बात हो, बता दे॥ ४ ॥

तस्माद्वक्ष्यामि ते राजन्भवमिच्छन्कुरून्प्रति । वचः श्रेयः करं धर्म्यं ब्रुवतस्तन्निबोध मे ॥ ५ ॥

इसलिये राजन् ! जिससे समस्त कौरवों का हित हो, वही बात आपसे कहुँगा। मैं जो कल्याणकारी एवं धर्मयुक्त वचन कह रहा हूँ, उन्हें आप ध्यान देकर सुनें- ॥ ५॥

मिथ्योपेतानि कर्माणि सिध्येयुर्यानि भारत । अनुपाय प्रयुक्तानि मा स्म तेषु मनः कृथाः ॥ ६ ॥

असत् उपायों (जूआ आदि) का प्रयोग करके जो कपटपूर्ण भारत कार्य सिद्ध होते हैं, उनमें आप मन मत लगाइये। ६ ॥।

तथैव योगविहितं न सिध्येत्कर्म यन्नृप । उपाययुक्तं मेधावी न तत्र ग्लपयेन्मनः ॥ ७ ॥

इसी प्रकार अच्छे उपायों का उपयोग करके सावधानी के साथ किया गया कोई कर्म यदि सफल न हो तो बुद्धिमान् पुरुष को उसके लिये मनमें ग्लानि नहीं करनी चाहिये।। ७ ॥

अनुबन्धानवेक्षेत सानुबन्धेषु कर्मसु । सम्प्रधार्य च कुर्वीत न वेगेन समाचरेत् ॥ ८ ॥

किसी प्रयोजन से किये गये कर्मोंमें पहले प्रयोजन को समझ लेना चाहिये। खूब सोच-विचारकर काम करना चाहिये, जल्दबाजी से किसी काम का आरम्भ नहीं करना चाहिये ॥ ८ ॥।

अनुबन्धं च सम्प्रेक्ष्य विपाकांश्चैव कर्मणाम् । उत्थानमात्मनश्चैव धीरः कुर्वीत वा न वा ॥ ९ ॥

धीर मनुष्य को उचित है कि पहले कर्मों के प्रयोजन, परिणाम तथा अपनी उन्नति का विचार करके फिर काम आरम्भ करे या न करे ॥ ९ ॥

यः प्रमाणं न जानाति स्थाने वृद्धौ तथा क्षये । कोशे जनपदे दण्डे न स राज्यावतिष्ठते ॥ १० ॥

जो राजा स्थिति, लाभ, हानि, खजाना, देश तथा दण्ड आदि की मात्रा को नहीं जानता, वह राज्य पर स्थित नहीं रह सकता॥ १० ॥

यस्त्वेतानि प्रमाणानि यथोक्तान्यनुपश्यति । युक्तो धर्मार्थयोर्ज्ञाने स राज्यमधिगच्छति ॥ ११ ॥

जो इनके प्रमाणों को ठीक-ठीक जानता है तथा धर्म और अर्थके ज्ञान में दत्तचित्त रहता है, वह राज्य को प्राप्त करता है ॥ ११ ॥

न राज्यं प्राप्तमित्येव वर्तितव्यमसाम्प्रतम् । श्रियं ह्यविनयो हन्ति जरा रूपमिवोत्तमम् ॥ १२ ॥

अब तो राज्य प्राप्त हो ही गया'- ऐसा समझकर अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिये। उद्दष्डता सम्पत्ति को उसी प्रकार नष्ट कर देती है, जैसे सुन्दर रूप को बुढ़ापा ॥ १२ ॥

भक्ष्योत्तम प्रतिच्छन्नं मत्स्यो बडिशमायसम् । रूपाभिपाती ग्रसते नानुबन्धमवेक्षते ॥ १३ ॥

मछली बढ़िया चारे से ढकी हुई लोहे की काँटी को लोभमें पड़कर निगल जाती है, उससे होने वाले परिणाम पर विचार नहीं करती॥ १३ ॥

यच्छक्यं ग्रसितुं ग्रस्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत् । हितं च परिणामे यत्तदद्यं भूतिमिच्छता ॥ १४ ॥

अतः अपनी उन्नति चाहने वाले पुरुष को वही वस्तु खानी (या ग्रहण करनी) चाहिये, जो खाने योग्य हो तथा खायी जा सके, खाने (या ग्रहण करने) पर पच सके और पच जाने पर हितकारी हो । १४॥

वनस्पतेरपक्वानि फलानि प्रचिनोति यः । स नाप्नोति रसं तेभ्यो बीजं चास्य विनश्यति ॥ १५ ॥

जो पेड़ से कच्चे फलों को तोड़ता है, वह उन फलो से रस तो पाता नहीं; उलटे उस वृक्ष के बीज का नाश होता है।। १५ ॥

यस्तु पक्वमुपादत्ते काले परिणतं फलम् । फलाद्रसं स लभते बीजाच्चैव फलं पुनः ॥ १६ ॥

परन्तु जो समय पर पके हुए फल को ग्रहण करता है, वह फलसे रस पाता है और उस बीज से पुनः फल प्राप्त करता है । १६ ।

यथा मधु समादत्ते रक्षन्पुष्पाणि षट्पदः । तद्वदर्थान्मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया ॥ १७ ॥

जैसे भौरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनके मधु का आस्वादन करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनों को कष्ट दिये बिना ही उनसे धन ले ।। १७ ॥

पुष्पं पुष्पं विचिन्वीत मूलच्छेदं न कारयेत् । मालाकार इवारामे न यथाङ्गारकारकः ॥ १८ ॥

जैसे माली बगीचे में एक-एक फूल तोड़ता है, उसकी जड़ नहीं काटता, उसी प्रकार राजा प्रजा की रक्षा-पूर्वक उनसे कर ले । कोयला बनाने वाले की तरह जड़ नहीं काटनी चाहिये॥ १८ ॥

किं नु मे स्यादिदं कृत्वा किं नु मे स्यादकुर्वतः । इति कर्माणि सञ्चिन्त्य कुर्याद्वा पुरुषो न वा ॥ १९ ॥

इसे करनेसे मेरा क्या लाभ होगा और न करने से क्या हानि होगी-इस प्रकार कर्मके विषयमें भली-भाँति विचार करके फिर मनुष्य करे या न करे ।। १९ ॥

अनारभ्या भवन्त्यर्थाः के चिन्नित्यं तथागताः । कृतः पुरुषकारोऽपि भवेद्येषु निरर्थकः ॥ २० ॥

कुछ ऐसे व्यर्थ कार्य हैं, जो निल्य आप्राप्त होने के कारण आरम्भ करने योग्य नहीं होते, क्योंकि उनके लिये किया हृुआ पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जाता है। २० ।।

प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः । न तं भर्तारमिच्छन्ति षण्ढं पतिमिव स्त्रियः ॥ २१ ॥

जिसकी प्रसन्नता का कोई फल नहीं और क्रोध भी व्यर्थ है, उसको प्रजा स्वामी बनाना नहीं चाहती-जैसे स्त्री नपुंसक को पति नहीं बनाना चाहती ॥ २१ ॥

कांश्चिदर्थान्नरः प्राज्ञो लभु मूलान्महाफलान् । क्षिप्रमारभते कर्तुं न विघ्नयति तादृशान् ॥ २२ ॥

जिनका मूल (साधन) छोटा और फल महान् हो, बुद्धिमान् पुरुष उनको शीघ्र ही आरम्म कर देता है, वैसे कामों में वह विघ्न नहीं आने देता।॥ २२ ॥

ऋजु पश्यति यः सर्वं चक्षुषानुपिबन्निव । आसीनमपि तूष्णीकमनुरज्यन्ति तं प्रजाः ॥ २३ ॥

जो राजा मानो आँखों से पी जायगा-इस प्रकार प्रेम के साथ कोमल दृष्टि से देखता है, वह चुपचाप बैठा रहे तो भी प्रजा उससे अनुराग रखती है॥ २३ ॥

सुपुष्मितः स्यादफल: फलितः स्याद् दुरारुहः । अपक्रः पक्कसंकाशो न तु शीर्येत कहिचित् ॥ २४ ॥

राजा वृक्ष की भाँति अच्छी तरह फूलने ( प्रसन्न रहने) पर भी फल से खाली रहे (अधिक देनेवाला न हों) यदि फल से युक्त (देने वाला) हो तो भी जिस पर चढ़ा न जा सके, ऐसा (पहुँच के बाहर) होकर रहे । कच्चा (कम शक्ति वाला) होनेपर भी पके (शक्ति सम्पन्न) की भाँति अपने को प्रकट करे, ऐसा करने से वह नष्ट नहीं होता । २४ ॥

चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम् । प्रसादयति लोकं यस्तं लोकोऽनुप्रसीदति ॥ २५ ॥

जो राजा नेत्र, मन, वाणी और कर्म-इन चारोंसे प्रजाको प्रसन्न करता उसी से प्रजा प्रसन्न रहती है । २५ ॥

यस्मात्त्रस्यन्ति भूतानि मृगव्याधान्मृगा इव । सागरान्तामपि महीं लब्ध्वा स परिहीयते ॥ २६ ॥

जैसे व्याघ्र से हिरण भयभीत होता है, उसी प्रकार जिससे समस्त प्राणी डरते हैं, वह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य पाकर भी प्रजाजनों के द्वारा त्याग दिया जाता है २६ ॥

पितृपैतामहं राज्यं प्राप्तवान्स्वेन तेजसा । वायुरभ्रमिवासाद्य भ्रंशयत्यनये स्थितः ॥ २७ ॥

अन्याय में स्थित हुआ राजा बाप-दादों का राज्य पाकर भी अपने ही कर्मो से उसे इस तरह भ्रष्ट कर देता है, जैसे हवा बादल को छिन्न-भिन्न कर देती है ॥ २७ ॥

धर्ममाचरतो राज्ञः सद्भिश्चरितमादितः । वसुधा वसुसम्पूर्णा वर्धते भूतिवर्धनी ॥ २८ ॥

परम्परा से सज्जन पुरुषों द्वारा किये हुए धर्म का आचरण करनेवाले राजा के राज्य की पृथ्वी धन-धान्य से पूर्ण होकर उन्नति को प्राप्त होती है और उसके ऐश्वर्य को बढ़ाती है॥ २८॥

अथ सन्त्यजतो धर्ममधर्मं चानुतिष्ठतः । प्रतिसंवेष्टते भूमिरग्नौ चर्माहितं यथा ॥ २९ ॥

जो राजा धर्म को छोड़ता और अधर्म का अनुष्ठान करता है, उसकी राज्यभूमि आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो जाती है । । २९ ॥

य एव यत्नः क्रियते प्रर राष्ट्रावमर्दने । स एव यत्नः कर्तव्यः स्वराष्ट्र परिपालने ॥ ३० ॥

जो यत्न दूसरे राष्ट्रों का नाश करने के लिये किया जाता है, वही अपने राज्य की रक्षाके लिये करना उचित है । ३० ॥

धर्मेण राज्यं विन्देत धर्मेण परिपालयेत् । धर्ममूलां श्रियं प्राप्य न जहाति न हीयते ॥ ३१ ॥

धर्म से ही राज्य प्राप्त करे और धर्म से ही उसकी रक्षा करे; क्योंकि धर्ममूलक राज्यलक्ष्मी को पाकर न तो राजा उसे छोड़ता है और न वहीं राजा को छोड़ती है॥ ३१ ॥

अप्युन्मत्तात्प्रलपतो बालाच्च परिसर्पतः । सर्वतः सारमादद्यादश्मभ्य इव काञ्चनम् ॥ ३२ ॥

निरर्थक बोलने वाले, पागल तथा बकवाद करनेवाले बच्चे से भी सब ओरसे उसी भाँति तत्वकी बात ग्रहण करनी चाहिये, जैसे पत्थरों में से सोना ले लिया जाता है॥ ३२ ॥

सुव्याहृतानि सुधियां सुकृतानि ततस्ततः । सञ्चिन्वन्धीर आसीत शिला हारी शिलं यथा ॥ ३३ ॥

जैसे उष्छवति से जीविका चलाने वाला एक-एक दानों चुगता रहता है, उसी प्रकार धोर पुरुष को सत्कर्मो का संग्रह करते रहना चाहिये ॥ ३३ ॥

गन्धेन गावः पश्यन्ति वेदैः पश्यन्ति ब्राह्मणाः । चारैः पश्यन्ति राजानश्चक्षुर्भ्यामितरे जनाः ॥ ३४ ॥

गोएँ गन्धसे, ब्राह्मण लोग वेदों से, राजा जासूसों से और अन्य साधारण लोग आँखों से देखा करते हैं ॥ ३४ ॥

भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा । अथ या सुदुहा राजन्नैव तां विनयन्त्यपि ॥ ३५ ॥

राजन ! जो गाय बड़ी कठिनाई से दुने देती हैं, वह बहुत हेश उठाती हैं; किंतु जो आसानी से दुध देती है, उसे लोग कष्ट नहीं देते।। ३५॥

यदतप्तं प्रणमति न तत्सन्तापयन्त्यपि । यच्च स्वयं नतं दारु न तत्संनामयन्त्यपि ॥ ३६ ॥

जो धातु बिना गरम किये मुड़ जाते हैं, उन्हें आगमें नहीं तपाते। जो काठ स्वयं झुका होता है, उसे लोग झुकाने का प्रयल्न नहीं करते।। ३६ ॥।

एतयोपमया धीरः संनमेत बलीयसे । इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे ॥ ३७ ॥

इस दृष्टान्त के अनुसार बुद्धिमान् पुरुष को अधिक बलवान के सामने झुक जाना चाहिये; जो अधिक बलवान के सामने झुकता है, वह मानो इन्द्रदेवता को प्रणाम करता है। ३७ ॥

पर्जन्यनाथाः पशवो राजानो मित्र बान्धवाः । पतयो बान्धवाः स्त्रीणां ब्राह्मणा वेद बान्धवाः ॥ ३८ ॥

पशुओं के रक्षक या स्वामी हैं बादल, राजाओं के सहायक हैं मन्त्री, ख्तरियों के बन्धु (रक्षक) हैं पति और ब्राह्मणों के बान्धव हैं वेद ॥ ३८ ॥

सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते । मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥ ३९ ॥

सत्य से धर्म की रक्षा होती है, योग से विद्या सुरक्षित होती है, सफाई से रूप की रक्षा होती है और सदाचार से कुल की रक्षा होती है।। ३९ ।।

मानेन रक्ष्यते धान्यमश्वान्रक्ष्यत्यनुक्रमः । अभीक्ष्णदर्शनाद्गावः स्त्रियो रक्ष्याः कुचेलतः ॥ ४० ॥

तौलने से नाज की रक्षा होती है, फेरनेसे घोड़े सुरक्षित रहते हैं, बारम्बार देखभाल करने से गौओं की तथा मैले वस्त्र से स्त्रियों की रक्षा होती है ॥ ४० ॥

न कुलं वृत्ति हीनस्य प्रमाणमिति मे मतिः । अन्त्येष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते ॥ ४१ ॥

मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्य का केवल ऊँचा कुल मान्य नहीं हो सकता; क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्यों का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता है॥ ४१ ॥

य ईर्ष्युः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये । सुखे सौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः ॥ ४२ ॥

जो दूसरों के धन, रूप, पराक्रम, कुलीनता, सुख, सौभाग्य और सम्मान पर डाह करता है, उसका यह रोग असाध्य हैं ॥ ४२ ॥

अकार्य करणाद्भीतः कार्याणां च विवर्जनात् । अकाले मन्त्रभेदाच्च येन माद्येन्न तत्पिबेत् ॥ ४३ ॥

न करने योग्य काम करने से, करने योग्य काम में प्रमाद करने से तथा कार्य सिद्ध होने के पहले ही मन्त्र प्रकट हो जानेसे डरना चाहिये और जिससे नशा चढ़े, ऐसा पेय नहीं पीना चाहिये ॥ ४३ ॥

विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः । एते मदावलिप्तानामेत एव सतां दमाः ॥ ४४ ॥

विद्या का मद, धन का मद और तीसरा ऊँचे कुलका मद है। ये घमण्डी पुरुषोंक े लिये तो मद हैं, परंतु सज्जन पुरुषों के लिये दमके साधन हैं । ४४ ॥

असन्तोऽभ्यर्थिताः सद्भिः किं चित्कार्यं कदाचन । मन्यन्ते सन्तमात्मानमसन्तमपि विश्रुतम् ॥ ४५ ॥

कभी किसी कार्य में सज्जनों द्वारा प्रार्थित होनेपर दुष्ट लोग अपने को प्रसिद्ध दुष्ट जानते हुए भी सज्जन मानने लगते हैं ॥ ४५॥

गतिरात्मवतां सन्तः सन्त एव सतां गतिः । असतां च गतिः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः ॥ ४६ ॥

मनस्वी पुरुषों को सहारा देने वाले सन्त हैं, सन्तों के भी सहारे सन्त ही हैं; दुष्टों को भी सहारा देने वाले सन्त हैं, पर दुष्टलोग सन्तों को सहारा नहीं । देते ॥ ४६॥

जिता सभा वस्त्रवता समाशा गोमता जिता । अध्वा जितो यानवता सर्वं शीलवता जितम् ॥ ४७ ॥

अच्छे वस्त्र वाला सभा को जीतता (अपना प्रभाव जमा लेता) है, जिसके पास गौ है, वह मीठे स्वाद की आकाङ्क्षाको जीत लेता है; सबारी से चलने वाला मार्ग को जीत लेता (तय कर लेता) है और शीलवान् पुरुष सब पर विजय पा लेता है।॥ ४७॥

शीलं प्रधानं पुरुषे तद्यस्येह प्रणश्यति । न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः ॥ ४८ ॥

पुरुष में शील ही प्रधान है, जिसका बही नष्ट हो जाता है, इस संसार में उसका जीवन, धन और बन्धुओं से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।। ४८ ॥

आढ्यानां मांसपरमं मध्यानां गोरसोत्तरम् । लवणोत्तरं दरिद्राणां भोजनं भरतर्षभ ॥ ४९ ॥

भरतश्रेष्ठ ! धनोन्मत्त पुरुषों के भोजन में माँस की, मध्यम श्रेणी वालों के भोजन में गोरस की तथा दरिद्रों के भोजन में तेल की प्रधानता होती है।। ४९ ॥

सम्पन्नतरमेवान्नं दरिद्रा भुञ्जते सदा । क्षुत्स्वादुतां जनयति सा चाढ्येषु सुदुर्लभा ॥ ५० ॥

दरिद्र पुरुष सदा स्वादिष्ट ही भोजन करते हैं, क्योंकि भूख उनके भोजन में स्वाद उत्पन्न कर देती है और वह ( भूख) धनियों के लिये सर्वथा दुर्लभ है॥ ५० ॥

प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते । दरिद्राणां तु राजेन्द्र अपि काष्ठं हि जीर्यते ॥ ५१ ॥

राजन् ! संसार में धनियों को प्रायः भोजन करने की शक्ति नहीं होती, किन्तु दरिद्रों के पेट में काठ भी पच जाते हैं ।। ५१ ।।

अवृत्तिर्भयमन्त्यानां मध्यानां मरणाद्भयम् । उत्तमानां तु मर्त्यानामवमानात्परं भयम् ॥ ५२ ॥

अधम पुरुषों को जीविका न होने से भय लगता है, मध्यम श्रेणी के मनुष्योंको मृत्युसे भय होता है, परंतु उत्तम पुरुषों को अपमान से ही महान् भय होता है॥ ५२ ॥

ऐश्वर्यमदपापिष्ठा मदाः पानमदादयः । ऐश्वर्यमदमत्तो हि नापतित्वा विबुध्यते ॥ ५३ ॥

यों तो पीने का नशा आदि भी नशा ही है, किंतु ऐश्वर्य का नशा तो बहुत ही बुरा है; क्योंकि ऐश्वर्य के मदसे मतवाला पुरुष श्रष्ट हुए बिना होश में नहीं आता ॥ ५३ ॥

इन्द्रियौरिन्द्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः । तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव ॥ ५४ ॥

वशमें न होनेके कारण विषयों में रमनेवाली इन्द्रियों से यह संसार डसी भाँति कष्ट पाता है, जैसे सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र तिरस्कृत हो जाते हैं।। ५४॥

यो जितः पञ्चवर्गेण सहजेनात्म कर्शिना । आपदस्तस्य वर्धन्ते शुक्लपक्ष इवोडुराड् ॥ ५५ ॥

जो मनुष्य जीवों को वशमें करने वाली सहज पाँच इन्द्रियोंसे जीत लिया गया, उसकी आपत्तियाँ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति बढ़ती हैं ॥ ५५ ॥

अविजित्य य आत्मानममात्यान्विजिगीषते । अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ॥ ५६ ॥

इन्द्रियों सहित मनको जीते बिना ही जो मन्त्रियों को जीतने की इच्छा करता है या मन्त्रियों को अपने अधीन किये बिना शत्रुको जीतना चाहता है, उस अजितेन्द्रिय पुरुष को सब लोग त्याग देते हैं ॥ ५६ ॥

आत्मानमेव प्रथमं देशरूपेण यो जयेत् । ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते ॥ ५७ ॥

जो पहले इन्द्रियों सहित मन को ही शत्रु समझकर जीत लेता है, उसके बाद यदि वह मन्त्रियों तथा शत्रुओं को जीतने की इच्छा करे तो उसे सफलता मिलती है ॥ ५७॥

वश्येन्द्रियं जितामात्यं धृतदण्डं विकारिषु । परीक्ष्य कारिणं धीरमत्यन्तं श्रीर्निषेवते ॥ ५८ ॥

इन्द्रियों तथा मनको जीतने वाले, अपराधियों को दण्ड देने वाले और जाँच-परखकर काम करने वाले धीर पुरुषकी लक्ष्मी अत्यन्त सेवा करती हैं ।। ५८ ॥

रथः शरीरं पुरुषस्य राजन् नात्मा नियन्तेन्द्रियाण्यस्य चाश्वाः । तैरप्रमत्तः कुशलः सदश्वैर् दान्तैः सुखं याति रथीव धीरः ॥ ५९ ॥

राजन् ! मनुष्य का शरीर रथ है, बुद्धि सारथि है और इन्द्रियाँ इसके घोड़े हैं। इनको वश में करके सावधान रहनेवाला चतुर एवं धीर पुरुष काबू में किये हुए घोड़ोंसे रथी की भाँति सुखपूर्वक यात्रा करता है।। ५९ ।।

एतान्यनिगृहीतानि व्यापादयितुमप्यलम् । अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ॥ ६० ॥

शिक्षा न पाये हुए तथा काबूमें न आने वाले घोड़े जैसे मूर्ख सारथि को मार्ग में मार गिराते हैं, वैसे ही ये इन्द्रियाँ वश में न रहने पर पुरुष को मार डालने में भी समर्थ होती हैं। ६० ॥।

अनर्थमर्थतः पश्यन्नर्तं चैवाप्यनर्थतः । इन्द्रियैः प्रसृतो बालः सुदुःखं मन्यते सुखम् ॥ ६१ ॥

इन्द्रियाँ बश में न होने के कारण अर्थ को अनर्थ और अनर्थ को अर्थ समझकर अज्ञानी पुरुष बहुत बड़े दुःख को भी सुख मान बैठता है॥ ६१ ॥

धर्मार्थौ यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानुगः । श्रीप्राणधनदारेभ्य क्षिप्रं स परिहीयते ॥ ६२ ॥

जो धर्म और अर्थ का परित्याग करके इन्द्रियों के वश में हो जाता शीघ्र ही ऐश्वर्य, प्राण, धन तथा स्त्री से ही हाथ धो बैठता है ६२ ।॥

अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणामनीश्वरः । इन्द्रियाणामनैश्वर्यादैश्वर्याद्भ्रश्यते हि सः ॥ ६३ ॥

जो अधिक धन का स्वामी होकर भी इन्द्रियों पर अधिकार नहीं रखता, वह इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण ही ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है । ६३ ॥

आत्मनात्मानमन्विच्छेन्मनो बुद्धीन्द्रियैर्यतैः । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ६४ ॥

मन, बुद्धि और इन्द्रियों को अपने अधीन कर अपने से ही अपने आत्मा को जानने की इच्छा करे; क्योंकि आत्मा ही अपना बन्धु और आत्मा ही अपना शत्रु है।। ६४ ।

बन्धुरात्माऽऽत्पनस्तस्य येनैवात्माऽऽत्मना जितः । स एव नियतो बन्धुः स एव नियतो रिपु: ॥ ६५ ॥

जिसने स्वयं अपने आत्मा को जीत लिया है, उसका आत्मा ही उसका बन्धु है। वही सच्चा बन्धु और वहीं नियत शत्रु है।॥ ६५॥

क्षुद्राक्षेणेव जालेन झषावपिहितावुभौ । कामश्च राजन्क्रोधश्च तौ प्राज्ञानं विलुम्पतः ॥ ६६ ॥

राजन् ! जिस प्रकार सूक्ष्म छेद वाले जालमें फँसी हुई दो बड़ी-बड़ी मछलियाँ मिलकर जाल को काट डालती हैं, उसी प्रकार ये काम और क्रोध-दोनों विशिष्ट ज्ञान को लुप्त कर देते है । ६६ ॥

समवेक्ष्येह धर्मार्थौ सम्भारान्योऽधिगच्छति । स वै सम्भृत सम्भारः सततं सुखमेधते ॥ ६७ ॥

जो इस जगत में धर्म तथा अर्थ का विचार करके विजय साधन- सामग्री का संग्रह करता है, वही उस सामग्री से युक्त होने के कारण सदा सुखपूर्वक समृद्धिशाली होता रहता है । ६७ ।॥

यः पञ्चाभ्यन्तराञ्शत्रूनविजित्य मतिक्षयान् । जिगीषति रिपूनन्यान्रिपवोऽभिभवन्ति तम् ॥ ६८ ॥

जो चित्त के विकारभूत पाँच इन्द्रिय रूपी भीतरी शत्रुओं को जीते बिना ही। दूसरे शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसे शत्रु पराजित कर देते हैं ६८ ।

दृश्यन्ते हि दुरात्मानो वध्यमानाः स्वकर्म भिः । इन्द्रियाणामनीशत्वाद्राजानो राज्यविभ्रमैः ॥ ६९ ॥

इन्द्रियों पर अधिकार न होने के कारण बड़े-बड़े साधु भी अपने कर्मो से तथा राजा लोग राज्य के भोग विलासों से बँधे रहते हैं।। ६९ ॥

असन्त्यागात्पापकृतामपापांस् तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात् । शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावात् तस्मात्पापैः सह सन्धिं न कुर्यात् ॥ ७० ॥

पापाचारी दुष्टों का त्याग न करके उनके साथ मिले रहने से निरपराध सज्जनों को भी उनके समान ही दण्ड प्राप्त होता है, जैसे सूखी लकड़ी में मिल जाने से गीली भी जल जाती है; इसलिये दुष्ट पुरुषों के साथ कभी मेल न करे ॥ ७० ॥

निजानुत्पततः शत्रून्पञ्च पञ्च प्रयोजनान् । यो मोहान्न निघृह्णाति तमापद्ग्रसते नरम् ॥ ७१ ॥

जो पाँच विषयों की ओर दौड़ने वाले अपने पाँच इन्द्रिय रूपी शत्रुओं को मोह के कारण वश में नहीं करता, उस मनुष्य को विपत्ति ग्रस लेती है॥ ७१ ॥

अनसूयार्जवं शौचं सन्तोषः प्रियवादिता । दमः सत्यमनायासो न भवन्ति दुरात्मनाम् ॥ ७२ ॥

गुणों में दोष न देखना, सरलता, पवित्रता, सन्तोष, प्रिय वचन बोलना, इन्द्रियदमन, सत्यभाषण तथा अच्चलता-ये गुण दुरात्मा पुरुषों में नहीं होते ॥ ७२ ॥

आत्मज्ञानमनायासस्तितिक्षा धर्मनित्यता । वाक्चैव गुप्ता दानं च नैतान्यन्त्येषु भारत ॥ ७३ ॥

भारत ! आत्मज्ञान, अक्रोध, सहनशीलता, धर्मपरायणता, वचनकी रक्षा तथा दान-ये गुण अधम पुरुषो में नहीं होते॥ ७३ ॥

आक्रोश परिवादाभ्यां विहिंसन्त्यबुधा बुधान् । वक्ता पापमुपादत्ते क्षममाणो विमुच्यते ॥ ७४ ॥

मूर्ख मनुष्य विद्वानों को गाली और निन्दा से कष्ट पहुँचाते हैं। गाली देने वाला पाप का भागी होता है और क्षमा करने वाला पाप से मुक्त हो जाता है। ७४ ।।

हिंसा बलमसाधूनां राज्ञां दण्डविधिर्बलम् । शुश्रूषा तु बलं स्त्रीणां क्षमागुणवतां बलम् ॥ ७५ ॥

दुष्ट पुरुषों का बल है हिंसा, राजाओं का बल है दण्ड देना, स्त्रियों का बल है सेवा और गुणवानों का बल है क्षमा ॥ ७५ ॥

वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः । अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहुभाषितुम् ॥ ७६ ॥

राजन् ! वाणीका पूर्ण संयम तो बहुत कठिन माना ही गया है, परंतु विशेष अर्थयुक्त और चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती ॥ ७६ ॥

अभ्यावहति कल्याणं विविधा वाक्सुभाषिता । सैव दुर्भाषिता राजन्ननर्थायोपपद्यते ॥ ७७ ॥

राजन् ! मधुर शब्दों में कही हुई खात अनेक प्रकार से कल्याण करती है; किंतु वही यदि कटु शब्दों में कही जाय तो महान् अनर्थ का कारण बन जाती है ।॥ ७७॥

संरोहति शरैर्विद्धं वनं परशुना हतम् । वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम् ॥ ७८ ॥

बाणों से बींधा हुआ तथा फरसे से काटा हुआ वन भी पनप जाता है, किंतु कटु वचन कहकर वाणी से किया हुआ भयानक घाव नहीं भरता॥ ७८ ॥

कर्णिनालीकनाराचा निर्हरन्ति शरीरतः । वाक्षल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदि शयो हि सः ॥ ७९ ॥

कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं. परंतु कटु वचनरूपी काँटा नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि वह हृदय के भीतर धँस जाता है ॥ ७९ ॥

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचति रत्र्यहानि । परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु ॥ ८० ॥

वचनरूपी बाण मुख से निकलकर दूसरों के मर्म पर ही चोट करते हैं, उनसे आहत मनुष्य रात-दिन घुलता रहता है अतः विद्वान् पुरुष दूसरो पर उनका प्रयोग न करे । ८० ॥

यस्मै देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम् । बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽपाचीनानि पश्यति ॥ ८१ ॥

देवतालोग जिसे पराजय देते हैं, उसकी बुद्धि को पहले ही हर लेते हैं; इससे वह नीच कमों पर ही अधिक दृष्टि रखता है ॥ ८१ ॥

बुद्धौ कलुष भूतायां विनाशे प्रत्युपस्थिते । अनयो नयसङ्काशो हृदयान्नापसर्पति ॥ ८२ ॥

विनाशकाल उपस्थित होने पर बुद्धि मलिन हो जाती है; फिर तो न्याय के समान प्रतीत होने वाला अन्याय हृदय से बाहर नहीं निकलता ।। ८२ ॥

सेयं बुद्धिः परीता ते पुत्राणां तव भारत । पाण्डवानां विरोधेन न चैनाम् अवबुध्यसे ॥ ८३ ॥

भरतश्रेष्ठ ! आपके पुत्रो की वह बुद्धि पाण्डवों के प्रति विरोध से व्याप्त हो गयी है; आप इन्हें पहचान नहीं रहे हैं ॥ ८३ ॥

राजा लक्षणसम्पन्नस्त्रैलोक्यस्यापि यो भवेत् । शिष्यस्ते शासिता सोऽस्तु धृतराष्ट्र युधिष्ठिरः ॥ ८४ ॥

महाराज धृतराष्ट्र ! जो राजलछणों से सम्पन्न होनेके कारण त्रिभुवन का भी राजा हो संकता है, वह आपका आज्ञाकारी युधिष्ठिर ही इस पृथ्वी का शासक होने योग्य है ॥ ८४ ॥

अतीव सर्वान्पुत्रांस्ते भागधेय पुरस्कृतः । तेजसा प्रज्ञया चैव युक्तो धर्मार्थतत्त्ववित् ॥ ८५ ॥

बह धर्म तथा अर्थ के तत्त्व को जानने वाला, तेज और बुद्धि से युक्त, पूर्ण सौभाग्यशाली तथा आपके सभी पुत्रो से बढ़-चढ़कर है॥ ८५॥

आनृशंस्यादनुक्रोशाद्योऽसौ धर्मभृतां वरः । गौरवात्तव राजेन्द्र बहून्क्लेशांस्तितिक्षति ॥ ८६ ॥

राजेन्द्र । धर्मधारियों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर दया, सौम्यभाव तथा आपके प्रति गौरव बुद्धि के, कारण बहुत कष्ट सह रहा है॥ ८६॥

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि प्रजागरपर्वणि विदुरनीतिवाक्ये चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३४ ॥