Seventh Chapter - The role of fate, the power of karma, and the influence of time
अध्याय 7 - भाग्य की भूमिका, कर्म की शक्ति और समय का प्रभावIn Chapter 7, Vidura gives his advice to Dhritarashtra on various topics, such as the role of fate, the power of karma, and the influence of time.
Fate is the predetermined course of events that is beyond human control. It is also the result of the divine will and the cosmic order. It is also the destiny of every individual and every action. Vidura tells Dhritarashtra that he should not blame fate for his misfortunes, and not be attached to his son Duryodhana, who is destined to perish in the war. He also tells him that he should not resist fate, and not be attached to his kingdom, which is destined to fall into the hands of the Pandavas. He says that by doing so, he will only increase his suffering and bondage.
Karma is the law of cause and effect that governs the actions and the reactions of every living being. It is also the source of merit and demerit, and the basis of rebirth and liberation. It is also the responsibility of every individual and every action. Vidura tells Dhritarashtra that he should understand karma, and not be attached to his son Duryodhana, who is reaping the fruits of his evil deeds. He also tells him that he should perform good karma, and not be attached to his kingdom, which is the result of his past deeds. He says that by doing so, he will attain the highest good and happiness.
Time is the measure of change and motion that affects everything in the universe. It is also the factor of decay and destruction, and the cycle of creation and dissolution. It is also the witness of every event and every action. Vidura tells Dhritarashtra that he should respect time, and not be attached to his son Duryodhana, who is under the influence of the evil time. He also tells him that he should not waste time, and not be attached to his kingdom, which is subject to the changes of time. He says that by doing so, he will avoid the calamities and the disasters of time.
धृतराष्ट्र उवाच। अनीश्वरोऽयं पुरुषो भवाभवे सूत्रप्रोता दारुमयीव योषा। धात्रा हि दिष्टस्य वशे किलायं तस्माद्वद त्वं श्रवणे घृतोऽहम् ॥ १ ॥
धृतराष्ट्र ने कहा-विदुर ! यह पुरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति और नाश में स्वतनत्र नहीं है । अरह्माने धागे से बँधी हुई कठपूतली की भाँति इसे प्रारब्ध के अधीन कर रखा है; इसलिये तुम कहते चलो, में सुनने के लिये धैर्य धारण किये बैठा हूँ॥ १ ॥
विदुर उवाच। अप्राप्तकालं वचनं बृहस्पतिरपि ब्रुवन्। लभते बुद्ध्यवज्ञानमवमानं च भारत ॥ २ ॥
विदुरजी बोले- भारत ! समय के विपरीत यदि बृहस्पति भी कुछ बोले, ता उनका अपमान ही होगा और उनकी बुद्धि को भी अवज्ञा ही होगी ॥ २ ॥
प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः। मन्त्रं मूलबलेनान्यो यः प्रियः प्रिय एव सः ॥ ३ ॥
संसार में कोई मनुष्य दान देते से प्रिय होता है, दुसरा प्रिय वचन बोलने से সरिय होता है और तीसरा मन्त्र तथा औषध के बलेसे प्रिय होता है, कितु जो वास्तव में प्रिय है, वह तो सदा प्रिय ही है । ३ ।
द्वेष्यो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डितः । प्रिये शुभानि कर्माणि द्वेष्ये पापानि भारत ॥ ४ ॥
जिससे द्वेष हो जाता है, वह न साधु न विद्वान् और न बुद्धिमान् ही जान पड़ता है। प्रियतम के तो सभी कर्म शुभ ही प्रतीत होते हैं और शत्रु के सभी कर्म पापमय ।। ४ ।।
तस्य त्यागात्. पुत्रशतस्य । वृद्धि-रस्यात्यागात् पुत्रशतस्य नाशः ॥ ५ ॥
राजन् । दुर्योधन के जन्म लेते ही मैंने कहा था कि केवल इसी एक पुत्र को तुम त्याग दो। इसके त्याग से सौ पुत्रों की वृद्धि होगी और इसका त्याग न करने से सौ पुत्रों का नाश होगा।॥ ५॥
न वृद्धिर्बहु मन्तव्या या वृद्धिः क्षयमावहेत् । क्षयोऽपि बहु मन्तव्यो यः क्षयो वृद्धिमावहेत् ॥ ६ ॥
जो बुद्धि भविष्य में नाश का कारण बने, उसे अधिक महत्त्व नहीं देना वाहिये और उस क्षय का भी बहुत आदर करना चाहिये; जो आगे चलकर अभ्युदय का कारण हो । ६ ॥
न स क्षयो महाराज यः क्षयो वृद्धिमावहेत् । क्षयः स त्विह मन्तव्यो यं लब्ध्वा बहु नाशयेत् ॥ ७ ॥
महाराज ! वास्तव र्मे जो क्षय वृद्धि का कारण होता है, वह क्षय ही नहीं है, किंतु उस लाभ को भी क्षय ही मानना चाहिये, जिसे पाने से बहुत से लाभों का नाश हो जाय ।। ७ ।।
समृद्धा गुणतः के चिद्भवन्ति धनतोऽपरे । धनवृद्धान्गुणैर्हीनान्धृतराष्ट्र विवर्जयेत् ॥ ८ ॥
! कुछ लोग गुण के घनी होते हैं, और कुछ लोग धन के धनी । जो घन के धनी होते हुए भी गुण के कंगाल हैं, उन्हें सर्वथा त्याग दीजिये।। ८॥
धृतराष्ट्र उवाच । सर्वं त्वमायती युक्तं भाषसे प्राज्ञसंमतम् । न चोत्सहे सुतं त्यक्तुं यतो धर्मस्ततो जयः ॥ ९ ॥
धृतराष्ट्र ने कहा लोग इसका अनुमोदन करते हैं; यह भी ठीक है कि जिस ओर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है, तो भी में अपने बेटे का त्याग नही कर सकता ।। ९।।
विदुर उवाच । स्वभावगुणसम्पन्नो न जातु विनयान्वितः । सुसूक्ष्ममपि भूतानामुपमर्दं प्रयोक्ष्यते ॥ १० ॥
विदुरजी बोले-जो अधिक गुणों से सम्पन्न और विनयी है, वह प्राणियों का तनिक भी संहार होते देख उसकी कभी उपेक्षा नहीं कर सकता ।। १० ॥
परापवाद निरताः परदुःखोदयेषु च । परस्परविरोधे च यतन्ते सततोथिताः ॥ ११ ॥ स दोषं दर्शनं येषां संवासे सुमहद्भयम् । अर्थादाने महान्दोषः प्रदाने च महद्भयम् ॥ १२ ॥
जो दूसरों की निन्दा में ही लगे रहते हैं, दूसरों को दुःख देने और आपस में फूट डालने के लिये सदा उत्साह के साथ प्रयत्न करते हैं, जिसका दर्शन दोष से भरा (अशुभ) है और जिनके साथ रहने में भी बहुत बड़ा खतरा है, ऐसे लोगों से धन लेने में महान् दोष है और उन्हें देने में बहुत बड़ा भय है ॥ ११-१२ ॥
ये पाप इति विख्याताः संवासे परिगर्हिताः । युक्ताश्चान्यैर्महादोषैर्ये नरास्तान्विवर्जयेत् ॥ १३ ॥
दूसरों में फूट डालने का जिनका स्वभाव है, जो कामी, निल्लज्ज, शठ और प्रसिद्ध पापी हैं, वे साथ रखने के अयोग्य - निन्दित माने गये हैं । १३ ॥
निवर्तमाने सौहार्दे प्रीतिर्नीचे प्रणश्यति । या चैव फलनिर्वृत्तिः सौहृदे चैव यत्सुखम् ॥ १४ ॥
उपर्युक्त दोषों के अतिरिक्त और भी जो महान् दोष हैं उनसे युक्त मनुष्य का त्याग कर देना चाहिये। सौहार्द भाव निवृत्त हो जाने पर नीच पुरुषों का प्रेम नष्ट हो जाता है, उस सौहार्द से होने वाले फल की सिद्धि ओर सुख का भी नाश हो जाता है ।। १४-१/२ ।।
यतते चापवादाय यत्नमारभते क्षये । अल्पेऽप्यपकृते मोहान्न शान्तिमुपगच्छति ॥ १५ ॥
फिर वह नीच पुरुष निन्दा करने के लिये यत्न करता है, थोडा भी अपराध हो जाने पर माहवश विनाश के लिये उद्योग आरम्भ कर देता है उसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती॥ १५-१/२ ॥
तादृशैः सङ्गतं नीचैर्नृशंसैरकृतात्मभिः । निशाम्य निपुणं बुद्ध्या विद्वान्दूराद्विवर्जयेत् ॥ १६ ॥
वैसे नीच, क्रूर तथा अजितेन्द्रिय पुरुषो से होने वाले सङ्ग पर अपनी बुद्धि से पूर्ण विचार करके विद्वान् पुरुष उसे, दूर से ही त्याग दे ॥ १६-१/२ ।।
यो ज्ञातिमनुगृह्णाति दरिद्रं दीनमातुरम् । सपुत्रपशुभिर्वृद्धिं यशश्चाव्ययमश्नुते ॥ १७ ॥
जो अपने कुटुम्बी, दरिद्र, दीन तथा रोगी पर अनुगरह करता है, वह पुत्र और पशुओ से समूद्ध होता और अनन्त कल्याण को अनुभव करता है । १७-१/२ ॥
ज्ञातयो वर्धनीयास्तैर्य इच्छन्त्यात्मनः शुभम् । कुलवृद्धिं च राजेन्द्र तस्मात्साधु समाचर ॥ १८ ॥
राजेन्द्र जो लोग अपने भले की इच्छा करते हैं, उन्हें अपने जाती भाइयों को उन्नतिशील बनाना चाहिये; इसलिए आप भली भांति अपने कुल की वृद्धि करें । १८-१/२ ।
श्रेयसा योक्ष्यसे राजन्कुर्वाणो ज्ञातिसत्क्रियाम् । विगुणा ह्यपि संरक्ष्या ज्ञातयो भरतर्षभ ॥ १९ ॥
राजन् ! जो अपने कुटुम्बीजनों का सत्कार करता है वह कल्याण का भागी होता है ।। १ १ ।।
किं पुनर्गुणवन्तस्ते त्वत्प्रसादाभिकाङ्क्षिणः । प्रसादं कुरु दीनानां पाण्डवानां विशां पते ॥ २० ॥
भरतश्रेष्ठ ! अपने कुटुम्ब के लोग गुणहीन हो तो भी उनकी रक्षा करनी चाहिये। फिर जो आपके कृपाभिलाषी एवं गुणवान् हैं, उनकी तो बात हो क्या है ॥ २० ॥
दीयन्तां ग्रामकाः के चित्तेषां वृत्त्यर्थमीश्वर । एवं लोके यशःप्राप्तो भविष्यत्सि नराधिप ॥ २१ ॥
राजन ! आप समर्थ हैं, बीर पाण्डवो पर कृपा कीजिये और उनकी जीविका के लिये कुछ गाँव दे दीजिये ॥ २१ ॥
वृद्धेन हि त्वया कार्यं पुत्राणां तात रक्षणम् । मया चापि हितं वाच्यं विद्धि मां त्वद्धितैषिणम् ॥ २२ ॥
नरेश्वर ! ऐसा करने से आपको इस संसार में यश प्राप्त होगा। तात ! आप बुद्ध हैं, इसलिये आपको अपने पुत्रो पर शासन करना चाहिये || २२ ॥
ज्ञातिभिर्विग्रहस्तात न कर्तव्यो भवार्थिना । सुखानि सह भोज्यानि ज्ञातिभिर्भरतर्षभ ॥ २३ ॥
भरतश्रेष्ठ ! मुझे भी आपके हित की ही बाते कहनी चाहिये। आप मुझे अपना हितेषी समझो । तात ! शुभ चाहने चाले को अपने जाति-भाइयो के साथ कलह नहीं करना चाहिये; अपितु उनके साथ मिलकर सुख का उपभोग करना चाहिये॥ २३ ॥
सम्भोजनं सङ्कथनं सम्प्रीतिश् च परस्परम् । ज्ञातिभिः सह कार्याणि न विरोधः कथं चन ॥ २४ ॥
जाति-भाइयो के साथ परस्पर भोजन, बातचात एवं प्रेम करना हो कर्तव्य है, उनके साथ कभी विरोध नही करना चहिये।। २४ ।।।
ज्ञातयस्तारयन्तीह ज्ञातयो मज्जयन्ति च । सुवृत्तास्तारयन्तीह दुर्वृत्ता मज्जयन्ति च ॥ २५ ॥
इस जगत में जाति-भाई ही तारते और डुबाते भी हैं ! उनमें जो सदाचारी हैं वे तो तारते है और दुराचारी डुबा देते हैं।। २५ ।।
सुवृत्तो भव राजेन्द्र पाण्डवान्प्रति मानद । अधर्षणीयः शत्रूणां तैर्वृतस्त्वं भविष्यसि ॥ २६ ॥
राजेन्द्र ! आप पाण्डवो के प्रति सद्व्यवहार करें। मानद ! उनसे सुरक्षित होकर आप शत्रुओं के आक्रमण से बचे रहेंगे।। २६ ॥
श्रीमन्तं ज्ञातिमासाद्य यो ज्ञातिरवसीदति । दिग्धहस्तं मृग इव स एनस्तस्य विन्दति ॥ २७ ॥
विषैले वाण हाथ में लिये हुए व्याध के पास पहुँचकर जैसे मृग को कष्ट भोगना पड़ता है, उसी प्रकार जो जातीय बन्धु अपने धनी बन्धु के पास पहुंचकर दुःख पाता है; उसके पाप का भागी वह धनी होता हैं । २७ ॥
पश्चादपि नरश्रेष्ठ तव तापो भविष्यति । तान्वा हतान्सुतान्वापि श्रुत्वा तदनुचिन्तय ॥ २८ ॥
नरश्रेष्ठ ! आप पाण्डवों को अथवा अपने पुत्रों को मारे गये सुनकर पीछे सन्ताप करेंगे; अतः इस बात का पहले ही विचार कर लीजिये ।। २८ ।।
येन खट्वां समारूढः परितप्येत कर्मणा । आदावेव न तत्कुर्यादध्रुवे जीविते सति ॥ २९ ॥
इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है। जिस कर्म के करने से अन्त में खाट पर बैठकर पछताना पड़े, उसको पहले से ही नहीं करना चाहिये॥ २९ ।
न कश्चिन्नापनयते पुमानन्यत्र भार्गवात् । शेषसम्प्रतिपत्तिस्तु बुद्धिमत्स्वेव तिष्ठति ॥ ३० ॥
शुक्राचार्य के सिवा दूसरा कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो नीति का उल्लंघन नहीं करता, अतः जो बीत गया सो बीत गया। अब शेष कर्तव्य का विचार आप जैसे बुद्धिमान पुरुषो पर ही निर्भर है॥ ३० ॥
दुर्योधनेन यद्येतत्पापं तेषु पुरा कृतम् । त्वया तत्कुलवृद्धेन प्रत्यानेयं नरेश्वर ॥ ३१ ॥
नरेश्वर दुर्योधन ने पहले यदि पांडवों कि प्रति यह अपराध किया आप इस कुल में बड़े-बूढ़े हैं, आपके द्वारा उसका मार्जन हो जाना चाहिये॥ ३१ ॥
तांस्त्वं पदे प्रतिष्ठाप्य लोके विगतकल्मषः । भविष्यसि नरश्रेष्ठ पूजनीयो मनीषिणाम् ॥ ३२ ॥
नरश्रेष्ठ । यदि आप उनको राज पद पर स्थापित कर देंगे तो संसार में आपका कलङ्क धुल जायगा और आप बुद्धिमान् पुरुषों के माननीय हो जायेगे॥ ३२ ॥
सुव्याहृतानि धीराणां फलतः प्रविचिन्त्य यः । अध्यवस्यति कार्येषु चिरं यशसि तिष्ठति ॥ ३३ ॥
जो धीर पुरुषों के वचनो के परिणाम पर विचार करके उन्हें कार्य रूप में परिणत करता है, वह चिरकाल तक यश का भागी बना रहता है। ३३ ।
असम्यगुपयुक्तं हि ज्ञानं सुकुशलैरपि । उपलभ्यं चाविदितं विदितं चाननुष्ठितम् ॥ ३४ ॥
कुशल विद्वानों के द्वारा भी उपदेश किया हुआ ज्ञान व्यर्थ है, यदि उससे कर्तव्य का ज्ञान न हुआ अथवा ज्ञान होने पर भी उसका अनुष्ठान न हुआ। ३४ ।।
पापोदयफलं विद्वान् यो नारभति वर्धते | यस्तु पूर्वकृतं पापमविमृश्यानुवर्तते । अगाधपड्के दुर्मेंधा विषमे विनिपात्यते ॥ ३५ ॥
जो विद्वान पाप-रूप फल देने वाले कर्मों का आरग्भ नहीं करता, वह बढ़ता है, किन्तु जो पूर्व में किये हुए पापो का विचार करके उन्हीं का अनुसरण करता है, वह खोटी बुद्धि वाला मनुष्य अगाध कीचड से भरे हुए बीहड़ नरक में गिराया जाता है।। ३।।
मन्त्रभेदस्य षट् प्राज्ञो द्वाराणीमानि लक्षयेत् । अर्थसंततिकामश्च रक्षेदेतानि नित्यशः ॥ ३६ ॥ मदं स्वप्नमविज्ञानमाकारं चात्मसम्भवम् । दुष्टामात्येषु विश्रम्भं दूताच्चाकुशलादपि ॥ ३७ ॥
बुद्धिमान् पुरुष मन्त्रभेद के इन छः द्वारों को जाने और धन को रक्षित रखने की इच्छा से इन्हें सदा बन्द रखे- नशे का सेवन, निद्रा, आवश्यक बात की जानकारी न रखना, अपने नेत्र, मुख आदि का विकार, दुष्ट मन्त्रियों में विश्वास और मूर्ख दूत पर भी भरोसा रखना॥ ३६-३७ ॥
द्वाराण्येतानि यो ज्ञात्वा संवृणोति सदा नृप। त्रिवर्गाचरणे युक्तः स शत्रूनधितिष्ठति ॥ ३८ ॥
राजन् ! जो इन द्वारों को जानकर सदा बंद किये रहता है वह अर्थ, धर्म और काम के सेवन में लगा रहकर शत्रुऑ को वश में कर लेता है ।। ३८ ॥
न वै श्रुतमविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य वा ! धर्मार्थौ वेदितुं शक्यौ बृहस्पतिसमैरपि ॥ ३९ ॥
बृहस्पति के समान मनुष्य भी शास्त्रज्ञान अथवा बृद्धों की सेवा किये बिना धर्म और आर्थ का ज्ञान नही प्राप्त कर सकता ।। ३९ ॥
नष्टं समुद्रे पतितं नष्टं वाक्यमश्रृण्वति । अनात्मनि श्रुते नष्टं नष्टं हुतमनग्निकम् ॥ ४० ॥
समुद्र में गिरी हुई वस्तु नषट हो जाती है, जो सुनता नहीं उससे कही हुई बात नष्ट हो जाती है, अजितेन्दव पुरुष का शास्त्रज्ञान और रास्ते मे किया हुआ हवन भी नष्ट ही है।। ४० ।
मत्या परीक्ष्य मेधावी वुद्ध्या सम्पाद्य चासकृत्। श्रुत्वा दृष्ट्वाथ विज्ञाय प्राज्ञैमैत्रीं समाचरेत् ॥ ४१ ॥
बुद्धिमान पुरुष बुद्धि से जाँच कर अपने अनुभव से बारम्बार उनकी योग्यता का निस्चय करें, किर दुसरो से सुनकर और स्वयं देखकर भलीभांति विचार करके विद्वानों के साथ मित्रता करें । ४१ ।
अवृत्तिं विनयो हन्ति हन्त्यनर्थं पराक्रमः । हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ ४२ ॥
विनयभाव अपयश का नाश करता पराक्रम अनर्थ को दूर करता है, क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षरण का अन्त करता है ॥४2 ॥
परिच्छदेन क्षत्रेण वेश्मना परिचर्यया । परीक्षेत कुलं राजन्भोजनाच्छादनेन च ॥ ४३ ॥
राजन ! नाना प्रकार की भोगसामग्री, माता, घर, स्वागत-सत्कार के ढंग और भोजन तथा वस्त्र के द्वारा कुल की परीक्षा करे ॥ ४३ ॥
उपस्थितस्य कामस्य प्रतिवादो न विद्यते । अपि निर्मुक्तदेहस्य कामरक्तस्य किं पुनः ॥ ४४ ॥
देहाभिमान से रहित पुरुष के पास भी यदि न्याययुक्त पदार्थ स्वतः उपस्थित हो तो वह उसका विरोध नहीं करता, फिर कामासक्त मनुष्य के लिये तो कहना ही क्या है ? । ४४ ॥।
प्राज्ञोपसेविनं वैद्यं धार्मिकं प्रियदर्शनम् । मित्रवन्तं सुवाक्यं च सुहृदं परिपालयेत् ॥ ४५ ॥
जो विद्वानों की सेवा में रहने वाला वैद्य, घार्मिक, देखने में सुन्दर, मित्रो से युक्त तथा मधुरभाषी हो, ऐसे सुहृद् की सर्वथा रक्षा करनी चाहिये ।॥ ४५ ॥।
दुष्कुलीनः कुलीनो वा मर्यादां यो न लङ्घयेत् । धर्मापेक्षी मृदुह्हीमान् स कुलीनशताद् वरः ॥ ४६ ॥
अधम कुल में उत्पन्न हुआ हो या उत्तम कुल में- जो मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, धर्म की अपेक्षा रखता है, कोमल स्वभाव वाला तथा सलज है, वह सेकड़ो कुलीनों से बढ़कर है। ४६ ॥
ययोश्चित्तेन वा चित्तं नैभृतं नैभृतेन वा । समेति प्रज्ञया प्रज्ञा तयोर्मैत्री न जीर्यते ॥ ४७ ॥
जिन दो मनुष्यों का चित्त से चित्त, गुप्त रहस्य से गुप्त रहस्य और बुद्धि से बुद्धि मिल जाती है, उनकी मित्रता कभी नष्ट नहीं होती ॥४७ ॥
दुर्बुद्धिमकृतप्रज्ञं छन्नं कूपं तृणैरिव । विवर्जयीत मेधावी तस्मिन्मैत्री प्रणश्यति ॥ ४८ ॥
मेधावी पुरुष को चाहिये कि टुर्बुद्धि एवं विचारशक्ति से हीन पुरुष का तुण से ढके हुए कुए की भाँति परित्याग कर दे, वयोंकि उसके साथ की हुई मित्रता नष्ट हो जाती है । ४८ ॥
अवलिप्तेषु मूर्खेषु रौद्रसाहसिकेषु च । तथैवापेत धर्मेषु न मैत्रीमाचरेद्बुधः ॥ ४९ ॥
विद्वान् पुरुष को उचित है कि अभिमानी, मुर्ख, क्रोधी, साहसिक और धर्महीन पुरुषों के साथ मित्रता न करे ।।४९ ।।
कृतज्ञं धार्मिकं सत्यमक्षुद्रं दृढभक्तिकम् । जितेन्द्रियं स्थितं स्थित्यां मित्रमत्यागि चेष्यते ॥ ५० ॥
मित्र तो ऐसा होना चाहिये, जो कतज्ञ, घार्मिक, सत्यवादी उद्दार दढ़ अनुराग रखने वाला, जितेन्द्रिय, मर्यादा के भीतर रहनेवाला और मैत्री का त्याग न करने वाला हो ।। ५० ।।
इन्द्रियाणामनुत्सर्गो मृत्युना न विशिष्यते । अत्यर्थं पुनरुत्सर्गः सादयेद्दैवतान्यपि ॥ ५१ ॥
इन्द्रियाँ को सर्वथा रोक रखना तो मृत्यु से भी बढ़कर कटिन है,और उ्हें विलकुल खुली छोड़ देना देवताओं का भी नाश कर देता है ।| ५१ ।॥।
मार्दवं सर्वभूतानामनसूया क्षमा धृतिः । आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणां चाविमानना ॥ ५२ ॥
सम्पूर्ण प्राणियो के प्रति कोमलता का भव, गुणां में दोष में दखना, छमा, हेय] और मित्रो का अपमान न करना— ये सब गुण आयु को बढाने वाले हैं-ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं। ५२ ॥
अपनीतं सुनीतेन योऽर्थं प्रत्यानिनीषते । मतिमास्थाय सुदृढां तदकापुरुष व्रतम् ॥ ५३ ॥
जो अन्याय से नष्ट हुए धन को स्थिर बुद्धि का आश्रय ले अच्छी नीति से पुनः लौटा लाने की इच्छा करता है, वह वीर पुरुषों का-सा आचरण करता है ॥ ५३ ।।
आयत्यां प्रतिकारज्ञस्तदात्वे दृढनिश्चयः । अतीते कार्यशेषज्ञो नरोऽर्थैर्न प्रहीयते ॥ ५४ ॥
जो आने वाले दुःख को रोकने का उपाय जानता है, वर्तमानकालिक कर्तव्य के पालन में दढ़ निश्चय रखने वाला है और अतीत काल में जो कर्तव्य शेष रह गया है, उसे भी जानता है, वह मनुष्य कभी अर्थ से हीन नहीं
कर्मणा मनसा वाचा यदभीक्ष्णं निषेवते । तदेवापहरत्येनं तस्मात्कल्याणमाचरेत् ॥ ५५ ॥
मनुष्य मन,वाणी और कर्म से जिसका निरन्तर सेवन करता है, चह कार्य उस पुरुष को अपनी ओर खींच लेता है। इसलिये सदा कल्याणकारी कार्यो को ही करें।। ५५ ।।
मङ्गलालम्भनं योगः श्रुतमुत्थानमार्जवम् । भूतिमेतानि कुर्वन्ति सतां चाभीक्ष्ण दर्शनम् ॥ ५६ ॥
माङ्गलिक पदार्थों का स्पर्श, चित्तवृत्तिया का निरोध, शास्त्र का अभ्यास, और सत्पुरुषों का बारम्बार दर्शन- ये सब उद्योगशीलता, कल्याणकारी हैं। ५६ ।।
अनिर्वेदः श्रियो मूलं दुःखनाशे सुखस्य च । महान्भवत्यनिर्विण्णः सुखं चात्यन्तमश्नुते ॥ ५७ ॥
उद्योग में लगे रहना उससे बिरक्त न होना धन, लाभ और कल्याण का मूल है। इसलिये उद्योग न छोड़ने वाला मनुष्य महान् हो जाता है और अनन्त सुख का उपभोग करता है॥ ५७ ॥
नातः श्रीमत्तरं किं चिदन्यत्पथ्यतमं तथा । प्रभ विष्णोर्यथा तात क्षमा सर्वत्र सर्वदा ॥ ५८ ॥
तात । समर्थ पुरुष के लिये सब जगह और सब समय में क्षमा के समान हित कारक और अत्यन्त श्री सम्पन्न बनाने वाला उपाय दूसरा नहीं माना गया
क्षमेदशक्तः सर्वस्य शक्तिमान्धर्मकारणात् । अर्थानर्थौ समौ यस्य तस्य नित्यं क्षमा हिता ॥ ५९ ॥
जो शक्तिहीन है, वह तो सब पर क्षमा करे ही, जो शक्तिमान् है, वह भी धर्म के लिये क्षमा करे तथा जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनों समान हैं, उसके लिये तो क्षमा सदा ही हितकरिणी होती है॥ ९ ॥
यत्सुखं सेवमानोऽपि धर्मार्थाभ्यां न हीयते । कामं तदुपसेवेत न मूढ व्रतमाचरेत् ॥ ६० ॥
जिस सुख का सेवन करते रहने पर भी मनुष्य धर्म और अर्थ से भ्रष्ट नहीं होता, उसका यथेष्ट सेवन करे, किन्तु मूढवत (आसक्ति एवं अन्याय पूर्वक विषय सेवन) न करे ।। ६० ॥
दुःखार्तेषु प्रमत्तेषु नास्तिकेष्वलसेषु च । न श्रीर्वसत्यदान्तेषु ये चोत्साह विवर्जिताः ॥ ६१ ॥
जो दुःख से पीड़ित, प्रमादी, नास्तिक, आलसी, अजितेन्द्रिय और उत्साह रहित है, उनके बही लक्छमी का वास नहीं होता॥ ६१।।
आर्जवेन नरं युक्तमार्जवात्सव्यपत्रपम् । अशक्तिमन्तं मन्यन्तो धर्षयन्ति कुबुद्धयः ॥ ६२ ॥
दुर्बुद्धि वाले लोग सरलता से युल और सरलता के ही कारण लज्जाशील मनुष्य को अशक्त मानकर उसका तिरस्कार करते हैं॥ ६२ ।॥
अत्यार्यमतिदातारमतिशूरमतिव्रतम् । प्रज्ञाभिमानिनं चैव श्रीर्भयान्नोपसर्पति ॥ ६३ ॥
अत्यन्त श्रेष्ठ, अतिशय दानी अतीव शूरबीर, अधिक व्रत-नियमों का पालन करने वाले और बुद्धि के घमण्ड में चूर रहने वाले मनुष्य के पास लक्ष्मी भयके मारे नहीं जाती ॥ ६३ ॥
न चातिगुणवत्स्वेषा नात्यन्तं निर्गुणेषु च । नैषा गुणान् कामयते नैर्गुण्यात्नानुरज्यते । उन्मत्ता गौरिवान्धा श्रीः क्कचिदेवावतिष्ठते ॥ ६४ ॥
राजलक्ष्गी न तो अल्यन्त गुणवानों के पास रहती है और न बहुत निगुणों के पास। यह न तो बहुत-से गुणो को चाहती है और न गुणहीन के प्रति ही अनुराग रस्खती है। उत्तम गौ की भाँति यह अन्धी लक्ष्मी कहीं- कहीं ही ठहरती हैं ।। ६४ ॥
अग्निहोत्रफला वेदाः शीलवृत्तफलं श्रुतम् । रतिपुत्र फला दारा दत्तभुक्त फलं धनम् ॥ ६५ ॥
वेदों का फल है अमिहोत्र करना, शास्त्राध्ययन को फल है सुशीलता और सदाचार, स्त्री का फल है रति-सुख और पुत्र की प्रापति तथा धन का फल है दान और उपभोग ।। ६५ ।॥
अधर्मोपार्जितैरर्थैर्यः करोत्यौर्ध्व देहिकम् । न स तस्य फलं प्रेत्य भुङ्क्तेऽर्थस्य दुरागमात् ॥ ६६ ॥
जो अधर्म के द्वारा कमाये हुए धन से परलोक साधक यज्ञादि कर्म करता है, वह मरने के पश्चात् उसके फल का नहीं पाता, क्योकि उसका धन बुरे रास्ते से आया होता है। ६६ ॥।
कानार वनदुर्गेषु कृच्छ्रास्वापत्सु सम्भ्रमे । उद्यतेषु च शस्त्रेषु नास्ति शेषवतां भयम् ॥ ६७ ॥
घोर जंगल में, दुर्गम मार्ग मे, कठिन आपत्ति के समय, घबराहट में और प्रहार के लिये शत्रु उठे रहने पर भी सत्त्व (मनोबल) सम्पन्न पुरुषों को भय नहीं होता ॥ ६७ ॥
उत्थानं संयमो दाक्ष्यमप्रमादो धृतिः स्मृतिः । समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूलं भवस्य तत् ॥ ६८ ॥
उद्मोग, संयम, दुक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सौच-विचारकर इन्हें उन्नति का मूलमन्त्र समझिये ॥ ६८॥
तपोबलं तापसानां ब्रह्म ब्रह्मविदां बलम् । हिंसा बलमसाधूनां क्षमागुणवतां बलम् ॥ ६९ ॥
तपस्वियों का बल है तप, वेदवेत्ताओं का बल है वेद, असाधुओं का बल है हिसा और गुणवानो का बल है क्षमा ॥ ६९ ॥
अष्टौ तान्यव्रतघ्नानि आपो मूलं फलं पयः । हविर्ब्राह्मण काम्या च गुरोर्वचनमौषधम् ॥ ७० ॥
जल, मूल, फल, दूध, घी, ब्राह्मण की इच्छापूर्ति, गुरु का वचन और ओषध-ये आठ व्रत के नाशक नहीं होते॥ ७० ॥
न तत्परस्य सन्दध्यात्प्रतिकूलं यदात्मनः । सङ्ग्रहेणैष धर्मः स्यात्कामादन्यः प्रवर्तते ॥ ७१ ॥
जो अपने प्रतिकूल जान पड़े, उसे दूसरो के प्रति भी न करे। थोड़े में धर्म का यही स्वरूप है। इसके विपरीत जिसमें कामना से प्रवृत्ति होती है, बह तो अधर्म हैं ७१ ॥
अक्रोधेन जयेत्क्रोधमसाधुं साधुना जयेत् । जयेत्कदर्यं दानेन जयेत्सत्येन चानृतम् ॥ ७२ ॥
अक्रोध से क्रोध को जीते, असाधु को सद्व्यवहार से वश में करे, कृपण को दान से जीते और झूठ पर सत्य से विजय प्राप्त करे ।। ७२ ॥
स्त्री धूर्तकेऽलसे भीरौ चण्डे पुरुषमानिनि । चौरे कृतघ्ने विश्वासो न कार्यो न च नास्तिके ॥ ७३ ॥
स्त्री, धूर्त, आलसी, डरपोक, क्रोधी, पुरुषत्व के अभिमानी, चोर, और नास्तिक का विश्वास नहीं करना चाहिये ॥ ७३ ॥
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः । चत्वारि सम्प्रवर्धन्ते कीर्तिरायुर्यशोबलम् ॥ ७४ ॥
जो नित्य गुरुजनों को प्रणाम करता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में लगा रहता है, उसकी कीर्ति, आयु, यश और बल-ये चारों बढ़ते है ॥ ७४ ॥
अतिक्लेशेन येऽर्थाः स्युर्धर्मस्यातिक्रमेण च । अरेर्वा प्रणिपातेन मा स्म तेषु मनः कृथाः ॥ ७५ ॥
जो धन अत्यन्त क्लेश उठाने से, धर्म का उल्लङ्गन करने से अधवा शत्रु के सामने सिर झुकाने से प्राप्त होता हो, उसमें आप मन न लगाइये ॥ ७५॥
अविद्यः पुरुषः शोच्यः शोच्यं मिथुनमप्रजम् । निराहाराः प्रजाः शोच्याः शोच्यं राष्ट्रमराजकम् ॥ ७६ ॥
विद्याहीन पुरुष, सन्तानोत्पत्ति रहित स्त्री प्रसंग, आहार न पाने वाली प्रजा और बिना राजा के राष्ट्र के लिये शोक करना चाहिये ॥ ७६ ॥
अध्वा जरा देहवतां पर्वतानां जलं जरा । असम्भोगो जरा स्त्रीणां वाक्षल्यं मनसो जरा ॥ ७७ ॥
अधिक राह चलना देहधारियों के लिये दुःखरूप बुढ़ापा है, बराबर पानी गिरना पर्वतों का बुढ़ापा है, सम्भोग से वश्चित रहना स्त्रियों के लिये बुढ़ापा हैं और वचनरूपी बाणों का आघात मन के लिये बुढ़ापा है॥ ७७ ॥
अनाम्नाय मला वेदा ब्राह्मणस्याव्रतं मलम् ॥ ७८ ॥ कौतूहलमला साध्वी विप्रवास मलाः स्त्रियः ॥ ७९ ॥
अभ्यास न करना वेदो का मल है, ब्राह्मणोचित नियमो का पालन न करना ब्राह्मण का मल है, बाहीक देश (बलख-बुखारा) पृथ्वी का मल है तथा झूठ बोलना पुरुष का मल है, क्रीड़ा एवं हास-परिहास की उत्सुकता पतिव्रता स्त्री का मल है और पति के बिना परदेश में रहना स्त्री मात्र का मल है ७८-७९ ॥
सुवर्णस्य मलं रूप्यं रूप्यस्यापि मलं त्रपु । ज्ञेयं त्रपु मलं सीसं सीसस्यापि मलं मलम् ॥ ८० ॥
सोने का मल है चाँदी, चाँदी का मल है राँगा, राँगे का मल है सीसा और सीसा का भी मल है मल ॥ ८० ॥
न स्वप्नेन जयेन्निद्रां न कामेन स्त्रियं जयेत् । नेन्धनेन जयेदग्निं न पानेन सुरां जयेत् ॥ ८१ ॥
सोकर नींद को जीतने का प्रयास न करे। कामोपभाग के द्वारा सत्री को जीतने की इच्छा न करे । लकड़ी डालकर आग को जीतने की आशा न और अधिक पीकर मदिरा पीने की आदत को जीतने का प्रयास न करे ॥ ८१ ॥
यस्य दानजितं मित्रममित्रा युधि निर्जिताः । अन्नपानजिता दाराः सफलं तस्य जीवितम् ॥ ८२ ॥
जिसका मित्र धन-दान के द्वारा वश में आ चुका है, शत्रु युद्ध में जीत लिये गये हैं और स्त्रियाँ खान-पान के द्वारा वशीभूत हो चुकी हैं, उसका जीवन सफल है ।।८२ |
सहस्रिणोऽपि जीवन्ति जीवन्ति शतिनस्तथा । धृतराष्ट्रं विमुञ्चेच्छां न कथं चिन्न जीव्यते ॥ ८३ ॥
जिनके पासं हजार (रुपये) हैं, वे भी जीवित हैं तथा जिनके पास सौ (रुपये) हैं, वे भी जीवित हैं, अतः महाराज धूतराष्ट्र ! आप अधिक का लोभ छोड़ दीजिये, इससे भी किसी तरह जीवन रहेगा ही ॥ ८३ ॥|
यत्पृथिव्यां व्रीहि यवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः । नालमेकस्य तत्सर्वमिति पश्यन्न मुह्यति ॥ ८४ ॥
इस पृथिवी पर जो भी धान, जो, सोना, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब-के सब एक पुरुष के लिये भी पूरे नहीं हैं—ऐसा विचार करने वाला गनुष्य मोह में नहीं पड़ता ।८४ ।।
राजन्भूयो ब्रवीमि त्वां पुत्रेषु सममाचर । समता यदि ते राजन्स्वेषु पाण्डुसुतेषु च ॥ ८५ ॥
राजन् ! मैं, फिर कहता हूँ, यदि आपका अपने पुत्रों और पाण्डवों में समान भाव है तो उन सभी पुत्रों के साथ एक सा बर्ताव कीजिये ।॥ ८५ ॥
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि प्रजागरपर्वणि विदुरवाक्ये एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ।। ३९ ॥