Eighth Chapter - The glory of Krishna, the supremacy of dharma, and the inevitability of war

अध्याय 8 - कृष्ण की महिमा, धर्म की श्रेष्ठता और युद्ध की अनिवार्यता

In Chapter 8, Vidura gives his advice to Dhritarashtra on various topics, such as the glory of Krishna, the supremacy of dharma, and the inevitability of war.

Krishna is the supreme lord and the master of all. He is also the friend and the guide of the Pandavas, and the protector and the benefactor of the righteous. He is also the avatar, or the incarnation, of Vishnu, the preserver god, and the source of all existence. Vidura tells Dhritarashtra that he should worship Krishna, and not be attached to his son Duryodhana, who is an enemy of Krishna, and who has insulted and rejected him. He also tells him that he should surrender to Krishna, and not be attached to his kingdom, which is under the control of Krishna. He says that by doing so, he will attain the grace and the mercy of Krishna.

Dharma is the eternal law that governs the universe and the human society. It is also the source of happiness, prosperity, and justice. It is also the duty of every individual according to his or her varna (caste) and ashrama (stage of life). Vidura tells Dhritarashtra that he should follow dharma, and not be attached to his son Duryodhana, who is a violator of dharma, and who has oppressed and cheated the Pandavas. He also tells him that he should respect the dharma of the Pandavas, who are his nephews and rightful heirs of the throne. He says that by doing so, he will attain the highest good and happiness.

War is the inevitable outcome of the conflict between the Pandavas and the Kauravas. It is also the result of the divine plan and the cosmic order. It is also the opportunity to attain liberation, or moksha, which is the ultimate goal of human life. Vidura tells Dhritarashtra that he should not avoid war, and not be attached to his son Duryodhana, who is doomed to die in the war. He also tells him that he should not grieve for the dead, and not be attached to his kingdom, which is destined to be destroyed in the war. He says that by doing so, he will avoid the sorrow and the bondage of war.

योऽभ्यर्थितः सद्भिरसज्जमानः करोत्यर्थं शक्तिमहापयित्वा। क्षिप्रं यशस्तं समुपैति सन्तमलं प्रसन्ना हि सुखाय सन्तः ॥ १ ॥

विदुरजी कहते हैं-जो सज्जन पुरुषों से आदर पाकर आसक्तिरहित हो अपनी शक्ति के अनुसार अर्थ-साधन करता रहता है, उस श्रेष्ठ पुरुष को शीघ्र ही सुयश की प्राप्ति होती है, क्योंकि सन्त जिस पर प्रसन्न होते हैं, वह सदा सुखी रहता है ॥ १ ॥

महान्तमप्यर्थमधर्मयुक्तं यः सन्त्यजत्यनुपाक्रुष्ट एव। सुखं स दुःखान्यवमुच्य शेते जीर्णां त्वचं सर्प इवावमुच्य ॥ २ ॥

जो अधर्म से उपार्जित महान् धनराशि को भी उसकी ओर आकृष्ट हुए बिना ही त्याग देता है, वह जैसे साँप आपनी पुरानी केचुल को छोड़ता है, उसी प्रकार दुःखों से मुक्त हो सुखपूर्वक शयन करता है ।। २ ।।

अनृतं च समुत्कर्षे राजगामि च पैशुनम् । गुरोश्चालीक निर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया ॥ ३ ॥

झठ बोलकर उन्नति करना, राजा के पास तक चुगली करना, गुरू से भी मिथ्या आग्रह करना-ये तीन कार्य ब्रह्महत्या के समान हैं ।। ३ ॥

असूयैक पदं मृत्युरतिवादः श्रियो वधः । अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवस्त्रयः ॥ ४ ॥

गुणों में दोष देखना एकदम मृत्यु के समान है । कठोर बोलना या निन्दा करना लक्ष्मी का वध है। सुनने की इच्छा का अभाव या सेवा का अभाव, उतावलापन और आत्मप्रशंसा-ये तीन विद्या के शत्रु हैं ।। ४ ॥

आलस्यं मदमोहौ च चापलं गोष्ठिरव च। स्तब्धता चाभिमानित्यं तथात्यागित्वमेव च। एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः ॥ ५ ॥

स्तब्धता आलस्य, मद-मोह, चञ्चलता, गोष्ठी, उद्दण्डता, अभिमान और लोभ-ये सात विद्यार्थियों के लिये सदा ही दोष माने गये हैं ॥ ५ ॥

सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् । सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा सुखं त्यजेत् ॥ ६ ॥

सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ से मिले ? विद्या चाहने वालो के लिये सुख नहीं है। सुख की चाह हो तो विद्या को छोड़े और विद्या चाहे तो सुख का त्याग करे ।। ६ ।।

नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः । नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना ॥ ७ ॥

ईधन से आग की, नदियों से समुद्र की, समस्त प्राणियों से मृत्यु की और पुरुषों से कुलटा स्त्री की कभी तृप्ति नहीं होती ॥ ७ ॥

आशा धृतिं हन्ति समृद्धिमन्तकः क्रोधः श्रियं हन्ति यशः कदर्यता । अपालनं हन्ति पशूंश्च राजन्न् एकः क्रुद्धो ब्राह्मणो हन्ति राष्ट्रम् ॥८॥

आशा थेर्ये को, यमराज समृद्धि को, क्रोध लक्ष्मी को, कृपणता यश को और सार-संभाल का अभाव पशुओं को नष्ट कर देता है। इधर एक ही बाह्मण यदि क्रुद्ध हो जाय तो सम्पूर्ण राष्ट्र का नाश. कर देता है ॥ ८ ॥

अजश्च कांस्यं च रथश्च नित्यं मध्वाकर्षः शकुनिः श्रोत्रियश् च । वृद्धो ज्ञातिरवसन्नो वयस्य एतानि ते सन्तु गृहे सदैव ॥ ९ ॥

बकरियाँ, काँसे का पात्र, चाँदी, मधु, अर्क किचन का यन्त, पक्षी, वेदवेत्ता ब्राह्मण, बूढ़ा, कुटुम्बी और विपत्तिप्ग्रस्त कुलीन पुरुष— ये सब आप के घर में सदा मौजूद रहे ।। १ ।।

अजोक्षा चन्दनं वीणा आदर्शो मधुसर्पिषी । विषमौदुम्बरं शङ्खः स्वर्णं नाभिश्च रोचना ॥ १० ॥ गृहे स्थापयितव्यानि धन्यानि मनुरब्रवीत् । देव ब्राह्मण पूजार्थमतिथीनां च भारत ॥ ११ ॥

भारत ! मनुजी ने कहा है कि देवता, ब्राह्मण तथा आतिथियों की पुजा के लिये बकरी, बैल, चन्दन, वीणा, दर्पण, मधु, घी, जल, ताँबे के बर्तन शंख सालग्राम और गोरोचन --- ये सब वस्तुएँ घर पर रखनी चाहिये ॥ १० ॥

इदं च त्वां सर्वपरं ब्रवीमि पुण्यं पदं तात महाविशिष्टम् । न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ॥ १२ ॥

तात । आब में तुम्हें विहुत ही महत्वपूर्ण एवं सर्वोपरि पुण्य जनक बात बता रहा हूँ — कामना से, भय से, लोभ से तथा इस जीवन के लिये भी कभी धर्म का त्याग न करें ॥ १२ ॥

नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये नित्यो जीवो धातुरस्य त्वनित्यः। त्यक्त्वानित्यं प्रतितिष्ठस्व नित्ये सन्तुष्य त्वं तोष परो हि लाभः ॥ १३ ॥

धर्म नित्य है, किन्तु सुख-दुःख अनित्य हैं, जीव नित्य है, पर इसका कारण (अविद्या) अनित्य हैं। आप अनित्य को छोड़कर नित्य में स्थित होइये और सन्तोष धारण कीजिये; क्योंकि सन्तोष ही सबसे बड़ा लाभ है ॥ १३ ॥

महाबलान्पश्य मनानुभावान् प्रशास्य भूमिं धनधान्य पूर्णाम् । राज्यानि हित्वा विपुलांश्च भोगान् गतान्नरेन्द्रान्वशमन्तकस्य ॥ १४ ॥

धन-धान्यादि से परिपूर्ण पृथ्वी का शासन करके अन्त में समस्त राज्य और विपुल भोगों को यहीं छोड़कर यमराज के वश में गये हुए बड़े-बड़े बलवान् एवं महानुभाव राजाओं की ओर दृष्टि डालिये ॥ १४ ॥

मृतं पुत्रं दुःखपुष्टं मनुष्या उत्क्षिप्य राजन्स्वगृहान्निर्हरन्ति । तं मुक्तकेशाः करुणं रुदन्तश् चितामध्ये काष्ठमिव क्षिपन्ति ॥ १५ ॥

राजन् ! जिसको बड़े कष्ट से पाला-पसा था, वह पुत्र जब मर जाता है तो मनुष्य उसे उठाकर तुरत अपने घर से बाहर कर देते हैं। पहरे तो इसके लिये बाल छितराये करुण स्वर में विलाप करते हैं, फिर साधारण काठ की भाँति उसे जलती चिता में झाँक देते हैं ।। १५ ॥

अन्यो धनं प्रेतगतस्य भुङ्क्ते वयांसि चाग्निश्च शरीरधातून् । द्वाभ्यामयं सह गच्छत्यमुत्र पुण्येन पापेन च वेष्ट्यमानः ॥ १६ ॥

मरे हुए मनुष्य का धन दूसरे लोग भागते हैं, उसके शरीर की धातुऑ को पक्षी खाते हैं या आग जलाती है। यह मनुष्य पुण्य-पाप से बैंधा हुआ इन्हीं दोनों के साथ पर लोक में गमन करता है ।। १६ ॥

उत्सृज्य विनिवर्तन्ते ज्ञातयः सुहृदः सुताः । अपुष्पानफलान् वृक्षान् यथा तात पतत्रिणः ॥ १७ ॥

तात ! बिना फल-फूल के वृक्ष को जैसे पक्षी छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उस प्रेत को उसके जाति वाले, सुहृद् और पुत्र चिता में छोड़कर लौट आते हैं ॥ १७ ॥

अग्नौ प्रास्तं तु पुरुषं कर्मान्वेति स्वयं कृतम् । तस्मात्तु पुरुषो यत्राद् धर्म संचिनुयाच्छनैः ॥ १८ ॥

अग्नि में डाले हुए उस पुरुष के पीछे. तो केवल उसका अपना किया हुआ बुरा या भला कर्म ही जाता है । इसलिये पुरुष को चाहिये कि वह धीरे-धीरे प्रयत्नपूर्वक धर्म का ही संग्रह करे ॥ १८॥

अस्माल्लोकादूर्ध्वममुष्य चाधो महत्तमस्तिष्ठति ह्यन्धकारम् । तद्वै महामोहनमिन्द्रियाणां बुध्यस्व मा त्वां प्रलभेत राजन् ॥ १९ ॥

इस लोक और परलोक से ऊपर और नीचे तक सर्वेत्र अज्ञान रूप महान् अन्धकार फेला हुआ है, बह इन्द्रियों को महान् मोहमें डालने वाला है। राजन् ! आप इराको जान लीजिये, जिससे यह आपका स्पर्श न कर सके ॥ १९ ॥

इदं वचः शक्ष्यसि चेद्यथावन् निशम्य सर्वं प्रतिपत्तुमेवम् । यशः परं प्राप्स्यसि जीवलोके भयं न चामुत्र न चेह तेऽस्ति ॥ २० ॥

मेरी इस बात को सुनकर यदि आप सब ठीकि-ठीक समझ सकंगे तों इस मनुष्यलोक में आप को महान् यश प्राप्त होगा और इहलोक तथा परलोक में आपके लिये भय नहीं रहेगा ।। २० ॥

आत्मा नदी भारत पुण्यतीर्था सत्योदका धृतिकूला दमोर्मिः । तस्यां स्नातः पूयते पुण्यकर्मा पुण्यो ह्यात्मा नित्यमम्भोऽम्भ एव ॥ २१ ॥

भारत ! यह जीवात्मा एक नदी है, इसमें पुण्य ही तीर्थ है, सत्यस्वरूप परमात्मा से इसका उद्गम हुआ है, धैरय ही इसके किनारे हैं, इसमें दया की लहरें उठती हैं, पुण्य कर्म करने वाला मनुष्य इसमें स्नान करके पवित्र होता है; क्योंकि लोभरहित आत्मा सदा पवित्र ही हैं ॥ २१ ॥

कामक्रोधग्राहवतीं पञ्चेन्द्रिय जलां नदीम् । कृत्वा धृतिमयीं नावं जन्म दुर्गाणि सन्तर ॥ २२ ॥

काम-क्रोधादिरूप ग्राह से भरी, पाँच इन्द्रियों के जल से पूर्ण इस संसार नदी के जन्म-मरण रूप दर्गम प्रवाह को धेर्य की नौका बनाकर पार कीजिये ॥ २२॥

प्रज्ञा वृद्धं धर्मवृद्धं स्वबन्धुं विद्या वृद्धं वयसा चापि वृद्धम् । कार्याकार्ये पूजयित्वा प्रसाद्य यः सम्पृच्छेन्न स मुह्येत्कदा चित् ॥ २३ ॥

जो बुद्धि, धर्म, विद्या और अवस्था में बड़े आदर-सत्कार से प्रसन्न करके उससे कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में प्रश्न करता वह कभी मोह में नहीं पड़ता ॥ २३ ॥

धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत्पाणिपादं च चक्षुषा । चक्षुः श्रोत्रे च मनसा मनो वाचं च कर्मणा ॥ २४ ॥

शिश्र और उदर की थैर्य से रक्षा करे, अर्थात् काम वेग और भूख की ज्वाला कों धर्यपूर्वक सहे । इस प्रकार हाथ-परकी नेत्रों से, नेत्र और कानों की मन से तथा मन और वाणी की सल्कर्मो से रक्षा करें ॥ २४ ॥

नित्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नित्यस्वाध्यायी पतितान्न वर्जी । ऋतं ब्रुवन्गुरवे कर्म कुर्वन् न ब्राह्मणश्च्यवते ब्रह्मलोकात् ॥ २५ ॥

जो प्रतिदिन जल से स्नान सन्ध्या-तर्पण आदि करता है, नित्य यज्ञोपवीत श्रारण किये रहता है, नित्य स्वाध्याय करता है, पतितों का अन्न त्याग देता है. सत्य बोलता और गुरु की सेवा करता है, वह ब्राह्मण कभी ब्रह्मालोक से भ्रष्ट नहीं होता २५ ॥

अधीत्य वेदान्परिसंस्तीर्य चाग्नीन् इष्ट्वा यज्ञैः पालयित्वा प्रजाश् च । गोब्राह्मणार्थे शस्त्रपूतान्तरात्मा हतः सङ्ग्रामे क्षत्रियः स्वर्गमेति ॥ २६ ॥

वेदों को पढ़कर, अग्निहोत्र के लिये अग्नि के चारो और कुश बिछाकर नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा यजन कर और प्रजाजन का पालन करके गौ और ब्राह्मणों के हितके लिये संग्रामनें मूत्युको प्राप्त हआ क्षत्रिय शस्त्रसे अन्त करण मवित्र हो जाने के कारण उर्ध्व लोक को जाता है ॥२६॥

वैश्योऽधीत्य ब्राह्मणान्क्षत्रियांश् च धनैः काले संविभज्याश्रितांश् च । त्रेता पूतं धूममाघ्राय पुण्यं प्रेत्य स्वर्गे देव सुखानि भुङ्क्ते ॥ २७ ॥

वैश्य यदि वेद-शासत्रों का अध्ययन करे बहाण, क्षत्रिय तथा आश्रित ना को समय-समय पर धन देकर, उनकी सहायता करे और यज्ञों द्वारा तीनों अग्नियों के पतित्र धूम की सुगन्ध लेता रहे तो बह मरने कि पश्चात् स्वर्ग लोक में दिव्य सुख भोगता हैं ।। २७ ॥

ब्रह्मक्षत्रं वैश्य वर्णं च शूद्रः क्रमेणैतान्न्यायतः पूजयानः । तुष्टेष्वेतेष्वव्यथो दग्धपापस् त्यक्त्वा देहं स्वर्गसुखानि भुङ्क्ते ॥ २८ ॥

शूद्र यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और बैंश्य की क्रम से न्यायपूर्वक सेवा करके इन्हें सन्तुष्ट करता है, तो वह व्यथा से रहित हो पापों से मुक्त होकर देह-त्याग के पश्चात् स्वर्ग सुख का उपभोग करता है । २८ ॥

चातुर्वर्ण्यस्यैष धर्मस्तवोक्तो हेतुं चात्र ब्रुवतो मे निबोध । क्षात्राद्धर्माद्धीयते पाण्डुपुत्रस् तं त्वं राजन्राजधर्मे नियुङ्क्ष्व ॥ २९ ॥

महाराज आपसे यह मेंने चारों वर्णां का धर्म बताया है; इसे बताने का कारण भी सुनिये। आपके कारण पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर क्षत्रिय धर्म से च्युत हो रहे हैं, अतः आप उन्हें पुनः राजधर्म में नियुक्त कीजिये ॥ २९ ॥

धृतराष्ट्र उवाच । एवमेतद्यथा मां त्वमनुशासति नित्यदा । ममापि च मतिः सौम्य भवत्येवं यथात्थ माम् ॥ ३० ॥

धृतराष्ट्र ने कहा -विदुर ! तुम प्रतिदिन मुझे जिस प्रकार उपदेश दिया करते हो, वह बहुत ठीक है। सौम्य ! तुम मुझसे जो कुछ भी कहते हों ऐसा ही मेरा भी विचार है ॥ ३० ॥

सा तु बुद्दिः कृताप्येवं पाण्डवान्रप्ति मे सदा । दुर्योधनं समासाद्य पुनर्विपरिवर्तते ॥ ३१ ॥

यह्यपि मैं पाण्डवो के प्रति सदा ऐसी हो बुद्धि रखता हूँ, तथापि दुर्योधन से मिलने पर फिर बुद्धि पलट जाती है ॥३१॥

न दिष्टमभ्यतिक्रान्तुं शक्यं मर्त्येन केन चित् । दिष्टमेव कृतं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् ॥ ३२ ॥

प्रारब्ध का उल्लङ्कन करने की शक्ति किसी भी प्राणी में नहीं है। मैं तो प्रारब्ध को ही अचल मानता हूँ. उसके सामने पुरुषार्थ तो व्यर्थ है ॥ ३२ ॥

इति श्रीमाहाभारते उद्योगपर्वणि प्रजागरपर्वणि विदुरवाक्ये चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥

॥ इति विदुर नीति समाप्ता ॥