Sixth Chapter - The nature of death, the meaning of liberation, and the teachings of Sanatsujata
अध्याय 6 - मृत्यु का स्वरूप, मुक्ति का अर्थ तथा सनत्सुजात के उपदेशIn Chapter 6, Vidura gives his advice to Dhritarashtra on various topics, such as the nature of death, the meaning of liberation, and the teachings of Sanatsujata.
Death is the inevitable end of all living beings. It is also the gateway to the next life, which is determined by one’s karma, or actions. It is also the opportunity to attain liberation, or moksha, which is the ultimate goal of human life. Vidura tells Dhritarashtra that he should not fear death, and not be attached to his son Duryodhana, who is doomed to die in the war. He also tells him that he should not grieve for the dead, and not be attached to his kingdom, which is perishable and transient. He says that by doing so, he will only increase his sorrow and bondage.
Liberation is the state of being free from the cycle of birth and death, which is caused by ignorance, desire, and karma. It is also the state of being one with the supreme self, or Brahman, which is the ultimate reality and the source of all existence. It is also the state of being blissful, peaceful, and enlightened. Vidura tells Dhritarashtra that he should seek liberation, and not be attached to his son Duryodhana, who is a source of misery, sin, and bondage. He also tells him that he should seek the guidance of Krishna, who is the supreme lord and the master of all. He says that by doing so, he will attain the highest good and happiness.
Sanatsujata is a sage who is an expert in the knowledge of death and liberation. He is also a disciple of Brahma, the creator god, and a teacher of Vyasa, the author of the Mahabharata. He is also the one who is invoked by Vidura to enlighten Dhritarashtra about death and liberation. Vidura tells Dhritarashtra that he should listen to the teachings of Sanatsujata, and not be attached to his son Duryodhana, who is ignorant, deluded, and misguided. He also tells him that he should follow the teachings of Sanatsujata, and not be attached to his kingdom, which is illusory, unstable, and unreal. He says that by doing so, he will learn the truth and the way to liberation.
ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति । प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्पतिपद्यते ॥ १ ॥
विदुरजी कहते हैं- समय नवयुवक व्यक्ति के प्राण ऊपर को उठने लगते हैं, फिर जब वह वृद्ध के स्वागत में उठकर खड़ा होता और प्रणाम करता है, तो पुनः प्राणो को वास्तविक स्थिति में प्राप्त करता है। १ ॥
पीठं दत्त्वा साधवेऽभ्यागताय आनीयापः परिनिर्णिज्य पादौ । सुखं पृष्ट्वा प्रतिवेद्यात्म संस्थं ततो दद्यादन्नमवेक्ष्य धीरः ॥ २ ॥
धीर पुरुष को चाहिये, जब कोई साधु पुरुष अतिथि के रूप में घर पर आवे तो पहले आसन देकर, जल लाकर उसके चरण पखारे, पिर उसकी कुशल पूछकर अपनी स्थिति बतावे, तदनन्तर आवश्यकता समझकर अन्न भोजने करवे ॥ २ ॥
यस्योदकं मधुपर्कं च गां च न मन्त्रवित्प्रतिगृह्णाति गेहे । लोभाद्भयादर्थकार्पण्यतो वा तस्यानर्थं जीवितमाहुरार्याः ॥ ३ ॥
वेदवेत्ता बाह्मण जिसके घर दाता के लोभ, भय या कजूसी के कारण जल मधुपर्क और गौ को नहीं स्त्वाकार करता, श्रेष्ठ पुरुष उस गृहस्थ का जीवन व्यर्थ वताया है ।। ३ ।।
चिकित्सकः शक्य कर्तावकीर्णी स्तेनः क्रूरो मद्यपो भ्रूणहा च । सेनाजीवी श्रुतिविक्रायकश् च भृशं प्रियोऽप्यतिथिर्नोदकार्हः ॥ ४ ॥
वैद्य, चीर-फाड़ करने वाला (जर्राह), ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट, चोर, क्रूर शराबी, गर्भहत्यारा, सेनाजीवी और वेद विक्रेता - ये यद्यपि पैर धोने के योग्य नहीं हैं तथापि यदि अतिथि होकर आवें तो विशेष प्रिय यानी आदर के योग्य है ॥ ५ ॥
अविक्रेयं लवणं पक्वमन्नं दधि क्षीरं मधु तैलं घृतं च । तिला मांसं मूलफलानि शाकं रक्तं वासः सर्वगन्धा गुडश् च ॥ ५ ॥
नमक, पका हुआ अत्र, दही, दूध, मधु, तेल, घी, तिल, मांस, फल, मूल, साग, लाल कपड़ा, सब प्रकार की गन्ध और गुड़-इतनी वस्तुएँ बेचने योम्य नहीं हैं ॥ ५ ॥
अरोषणो यः समलोष्ट काञ्चनः प्रहीण शोको गतसन्धि विग्रहः । निन्दा प्रशंसोपरतः प्रियाप्रिये चरन्नुदासीनवदेष भिक्षुकः ॥ ६ ॥
जो क्रोध न करने वाला ढेला-पत्थर और सुबर्ण को एक सा समझने वाला, शोकहीन, सन्धि वि्रह से रहित, निन्दा-प्रशसा से शून्य, प्रिय अप्रिय का त्याग करने वाला तथा उदासीन है, जही भिक्षुक (संन्यासी) है॥ ६ ॥
नीवार मूलेङ्गुद शाकवृत्तिः सुसंयतात्माग्निकार्येष्वचोद्यः । वने वसन्नतिथिष्वप्रमत्तो धुरन्धरः पुण्यकृदेष तापसः ॥ ७ ॥
जो नीवार (जंगली चावल), कन्द-मूल, इङ्गद (लिसीड़ा) और सागू खाकर नि्वाह करता है, मन को वश में रखता है, अग्निहोत्र करता है, वन में रहकर भी अतिथि सेवा में सदा सावधान रहता है, वही पुण्यात्मा तपस्वी (वानप्रस्थी) श्रेष्ठ माना गया है॥ ७ ॥
अपकृत्वा बुद्धिमतो दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत् । दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याभ्यां हिंसति हिंसितः ॥ ८ ॥
बुद्धिमान् पुरुष की बुराई करके इस विश्वास पर निश्चित्त न रहे कि मै टूर हूँ। बुद्धिमान की बाँहे बड़ी लम्बी होती हैं, सताया जाने पर वह उन्हीं बाँहों से बदला लेता है ॥ ८ ॥
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् । विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति ॥ ९ ॥
जो विश्वास का पात्र नहीं है, उसका तो विश्वास करे ही नहीं, किन्तु जो विश्वासपात्र है, उसपर भी अधिक विश्वास न करे । विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है, वह मूल का भी उच्छेद कर डालता है ॥ १॥
अनीर्ष्युर्गुप्तदारः स्यात्संविभागी प्रियंवदः । श्लक्ष्णो मधुरवाक्स्त्रीणां न चासां वशगो भवेत् ॥ १० ॥
मनुष्य को चाहिये कि वह ईष्ष्यारहित स्त्रियों का रक्षक, सम्पत्ति का न्यायपूर्वक विभाग करने वाला प्रियवादी, स्वच्छ तथा स्त्रियों के निकट मीटे वचन बोलने वाला हो, परंतु उनके वश में कभी न हो ॥ १० ॥
पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः । स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः ॥ ११ ॥
स्त्रीयां घर की लक्ष्मी कही गयी हैं: वे अत्यंत सौभाग्यशालिनी पूजा के योग्य पवित्र तथा धर की शोभा है। अतः इनकी विशेष रुप से रक्षा करनी चाहिये॥ ११ ॥
पितुरन्तःपुरं दद्यान्मातुर्दद्यान्महानसम् । गोषु चात्मसमं दद्यात्स्वयमेव कृषिं व्रजेत् । भृत्यैर्वणिज्याचारं च पुत्रैः सेवेत ब्राह्मणान् ॥ १२ ॥
अन्तःपुर की रक्षा का कार्य पिता को सौंप दे, रसोई-घर का प्रबंध माता के हाथों में दे दे, गौओं की सेवा में अपने समान व्यक्ति को नियुक्त करे और कृषि का कार्य स्वयं करे ॥ १२॥
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् । तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति ॥ १३ ॥
सेवकों द्वारा वाणिज्य-व्यापार और पुत्रो के द्वारा बाह्मणो की सेवा करे । जल से अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय और पत्थर से लोहा पेदा हुआ है । इनका तेज सर्वत्र व्याप्त होने पर भी अपने उत्पत्तिस्थान मे शान्त हो जाता है । १३ ।।
नित्यं सन्तः कुले जाताः पावकोपम तेजसः । क्षमावन्तो निराकाराः काष्ठेऽग्निरिव शेरते ॥ १४ ॥
अच्छे कुल में उत्पन्न, अग्नि के समान तेजस्वी, क्षमाशील और विकारशुन्य पुरुष सदा काष्ठ में अग्नि की भाँति शान्तभाव से स्थित रहते हैं॥ १४ ॥
यस्य मन्त्रं न जानन्ति बाह्याश्चाभ्यन्तराश् च ये। स राजा सर्वतश्चक्षुश्चिरमैश्वर्यमश्नुते ॥ १५ ॥
जिस राजा की मन्त्रणा को उसके बहिरङ्ग एवं अन्तरङ्ग सभासद् तक नही जानते सब और दूष्टि रखने वाला वह राजा चिरकाल तक ऐस्वर्य का उपभोग करता है ॥ १५ ॥
करिष्यन्न प्रभाषेत कृतान्येव च दर्शयेत् । धर्मकामार्थ कार्याणि तथा मन्त्रो न भिद्यते ॥ १६ ॥
धर्म, काम आर अर्थसम्ब्ध कार्या को करने से पहले न बताने. करके ही दिखावे | ऐसा करने से आपनी मन्त्रणा दुसरो पर प्रकट नहीं होती॥ १६ ॥
गिरिपृष्ठमुपारुह्य प्रासादं वा रहोगतः। अरण्ये निःशलाके वा तत्र मन्त्रो विधीयते ॥ १७ ॥
पर्वत की चोटी अथवा राजमहलपर चढ़कर एकान्त स्थान में जाकर या जङ्गल में तृण आदि से अनावृत स्थान पर मन्त्रणा करनी चाहिये॥ १७॥
नासुहृत्परमं मन्त्रं भारतार्हति वेदितुम् ॥ १८ ॥ अपण्डितो वापि सुहृत्पण्डितो वाप्यनात्मवान् ॥ १९ ॥ अमात्ये ह्यर्थलिप्सा च मन्त्ररक्षणमेव च ॥ २० ॥ कृतानि सर्वकार्याणि यस्य वा पार्षदा विदुः। गूढमन्त्रस्य नृपतेस्तस्य सिद्धिरसंशयम् ॥ २१ ॥
भारत ! जो मित्र न हो, मित्र होने पर भी पण्डित न हो, पप्डित होने पर भी जिसका मन बश में न हो, वह अपनी गुप्त मन्त्रणा जानने के योग्य नहीं है। राजा अच्छी तरह परीक्षा किदये बिना किसी को अपना मन्त्री न बनावे क्योंकि धन की प्राप्ति और मन्त्र की रक्षाका भार मन्त्री पर ही रहता है। जिसके धर्म, अर्थ ओर कामविषयक सभी कार्यो को पूर्ण होने के बाद हो सभासद्गण जान पाते हैं, वही राजा समस्त राजाओ में श्रेस्ट हैं। अपने मन्त्र को गुप्त रखने वाले उस राजा को निःसन्देह सिद्धि प्राप्त होती है।॥ १८ - २१ ॥
अप्रशस्तानि कर्माणि यो मोहादनुतिष्ठति । स तेषां विपरिभ्रंशे भ्रश्यते जीवितादपि ॥ २२ ॥
जो मोहवश बुरे कर्म करता है, वह उन कार्यो का विपरीत परिणाम होने से अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है॥२२॥
कर्मणां तु प्रशस्तानामनुष्ठानं सुखावहम् । तेषामेवाननुष्ठानं पश्चात्तापकरं महत् ॥ २३ ॥
उत्तम कर्मो का अनुष्ठान तो सुख देने वाला होता है किन्तु उन्ही का अनुष्ठान न किया जाय तो बह पश्चाताप का कारण माना गया है ॥ २३ ॥
अनधीत्य यथा वेदान्न विप्रः श्राद्धमरहति । एवमश्रुतषाडगुण्यो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति ॥ २४ ॥
जैसे वेदों को पढ़े बिना ब्राह्मण श्राद्ध का अधिकारी नहीं होता, उसी प्रकार सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय नामक छः गुणों को जाने बिना कोई गुप्त मन्त्रणा सुनने का अधिकारी नहीं होता ।। २४ ॥
स्थानवृद्ध क्षयज्ञस्य षाड्गुण्य विदितात्मनः । अनवज्ञात शीलस्य स्वाधीना पृथिवी नृप ॥ २५ ॥
राजन्! जो सन्धि-विग्रह आदि छः गुणों की जानकारी के कारण प्रसिद्ध है, स्थिति, वृ्धि और ह्रास को जानता है तथा जिसके स्वभाव की सब लोग प्रशंसा करते हैं, उसी राजा के अधीन पृथ्वी रहती है। २५ ॥
अमोघक्रोधहर्षस्य स्वयं कृत्यान्ववेक्षिणः। आत्मप्रत्यय कोशस्य वसुधेयं वसुन्धरा ॥ २६ ॥
जिसके क्रोध और हर्ष व्यर्थ नहीं जाते जो आवश्यक कर्यो की स्वयं देख-भाल करता है और खजाने की भी स्वयं जानकारी रखता है उसकी पृथ्वी पर्याप्त धन देने वाली ही होती है॥ २६ ॥
नाममात्रेण तुष्येत छत्रेण च महीपतिः। भृत्येभ्यो विसृजेदर्थान्नैकः सर्वहरो भवेत् ॥ २७ ॥
भूपति को चाहिये कि अपने राजा' नाम से और राजोचित छन्न' धारण से सतुष्ट रहे। सेवको को पर्यान्न धन दे, सब अकेले ही न हडप ले ।। २७ ॥
ब्राह्मणो ब्राह्मणं वेद भर्ता वेद स्त्रियं तथा । अमात्यं नृपतिर्वेद राजा राजानमेव च ॥ २८ ॥
ब्राह्मण को ब्राह्मण जानता है, स्त्री की उसका पति जानता है, मन्त्री को राजा जानता है और राजा को भी राजा ही जानता है ॥२८॥
न शत्रुरङ्कमापन्नो मोक्तव्यो वध्यतां गतः । अहताद्धि भयं तस्माज्जायते नचिरादिव ॥ २९ ॥
वश मे आये हुए वध योग्य शत्रु को कभी छोड़ना नहीं चाहिये । यदि अपना बल अधिक न हो तो नम्र होकर उसके पास समय बिताना चाहिये और बल होने पर उसे मार डालना चाहिये; क्यांकि यदि शत्रु मारा न गया तो उससे शीघ्र ही भय उपस्थित होता है ॥ २९ ॥
दैवतेषु च यत्नेन राजसु ब्राह्मणेषु च । नियन्तव्यः सदा क्रोधो वृद्धबालातुरेषु च ॥ ३० ॥
देवता, ब्राह्मण, राजा, बुद्ध, बालक और रोगी पर होने वाले क्रोध को प्रयत्न पूर्वक सदा रोकना चाहिये॥ ३० ॥
निरर्थं कलहं प्राज्ञो वर्जयेन्मूढ सेवितम् । कीर्तिं च लभते लोके न चानर्थेन युज्यते ॥ ३१ ॥
निरर्थक कलह करना मूर्खो का काम है, बुद्धिमान पुरुष कों इसका त्याग करना चाहिये ऐसा करने से उसे लोक में बश मिलता है और अनर्थ का सामना नहीं करना पड़ता ॥ ३१ ॥
प्रसादो निष्फलो यस्य क्रोधश्चापि निरर्थकः । न तं भर्तारमिच्छन्ति षण्ढं पतिमिव स्त्रियः ॥ ३२ ॥
जिसके प्रसन्न होने का कोई फल नहीं तथा ज़िसे का क्रोध भी व्यर्थ होता. ऐसे राजा को प्रजा उसी भाति नहीं चाहती, जैसे स्त्री नपुंसक पति को ॥ ३२ ॥
न बुद्धिर्धनलाभाय न जाड्यमसमृद्धये । लोकपर्याय वृत्तान्तं प्राज्ञो जानाति नेतरः ॥ ३३ ॥
बुद्धि से धन प्राप्त होता है और मूर्खता दरिद्रता का कारण है —ऐसा कोई नियम नहीं है । संसार चक्र क वृत्तान्त कों केवल विद्वान् पुरुष ही जानते है, दूसरे लोग नहीं॥ ३३ ॥
विद्या शीलवयोवृद्धान्बुद्धिवृद्धांश्च भारत। धनाभिजन वृद्धांश्च नित्यं मूढोऽवमन्यते ॥ ३४ ॥
भारत ! मूर्ख मनुष्य विद्या, शील, अवस्था, बुद्धि, धन और कुल मे बड़े माननीय पुरुषों का सदा अनादर किया करता है। ३४ ॥
अनार्य वृत्तमप्राज्ञमसूयकमधार्मिकम्। अनर्थाः क्षिप्रमायान्ति वाग्दुष्टं क्रोधनं तथा ॥ ३५ ॥
जिसका चरित्र निन्दनीय है, जो मूर्ख, गुणों में दोष देखने वाला अधार्मिक, बुरे वचन बीलने वाला और क्रोधी है, उसके ऊपर शीघ्र ही अनर्थ (सङ्कट) टूट पड़ते हैं ३५ ॥
अविसंवादनं दानं समयस्याव्यतिक्रमः । आवर्तयन्ति भूतानि सम्यक्प्रणिहिता च वाक् ॥ ३६ ॥
ठगी न करना, दान देना, बात पर कायम रहना और अच्छी तरह कहीं हुई हित की बात- ये सब सम्पूर्ण भूतों को अपना बना लेते हैं॥ ३६ ॥
अविसंवादको दक्षः कृतज्ञो मतिमानृजुः । अपि सङ्क्षीण कोशोऽपि लभते परिवारणम् ॥ ३७ ॥
किसी को भी धोखा न देने वाला चतुर, कृतज्ञ, बुद्धिमान् और सरल राजा खजाना समाप्त हो जाने पर भी सहायकों को पा जाता है, अर्थात् उसे सहायक मिल जाते हैं॥ ३७ ॥
धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा । मित्राणां चानभिद्रोहः सतैताः समिधः श्रियः ॥ ३८ ॥
धैर्य, मनोनिग्रह, इन्द्रिय संयम, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्र से द्रोह न करना-ये सात बातें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली है ।॥ ३८ ॥
असंविभागी दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः । तादृङ्नराधमो लोके वर्जनीयो नराधिप ॥ ३९ ॥
राजन ! जो अपने आश्रितो मे धन का ठीक-ठाक बॅटवारा नहीं करता तथा जो दुष्ट, कृत्घन और निर्लज्ज है, एसा राजा इस लोक में त्याग देने- योग्य है ।। ३९ ॥
न स रात्रौ सुखं शेते स सर्प इव वेश्मनि । यः कोपयति निर्दोषं स दोषोऽभ्यन्तरं जनम् ॥ ४० ॥
जो स्वयं दोषी होकर भी निर्दोष आत्मीय व्यक्ति को कुपित करता है, वह सर्प युक्त घर में रहने वाले मनुष्य की भाँति रात में सुख से नहीं सो सकता ।। ४० ॥
येषु दुष्टेषु दोषः स्याद्योगक्षेमस्य भारत । सदा प्रसादनं तेषां देवतानामिवाचरेत् ॥ ४१ ॥
भारत ! जिनके ऊपर दोषारोपण करने से योग और क्षेम मे बाधा आता हो, उन लोगों को देवता को भाँति सदा प्रसन्न रखना चाहिये |४१ ॥
येऽर्थाः स्त्रीषु समासक्ताः प्रथमोत्पतितेषु च । ये चानार्य समासक्ताः सर्वे ते संशयं गताः ॥ ४२ ॥
जो धन आदि पदार्थ स्त्री, प्रमादी, पतित और नीच परुषो के हाथ में सौप दिये जाते हैं, ते संशय में पड़ जाते हैं। ४२ ॥
यत्र स्त्री यत्र कितवो यत्र बालोऽनुशास्ति च । मज्जन्ति तेऽवशा देशा नद्यामश्मप्लवा इव ॥ ४३ ॥
राजन् ! जहां का शासन स्त्री, जुआरी और वालक के हाथ में है, बहां के लोग नटी में पत्थर की नाव पर बैठन वाला की भांत विपत्ति के समुद्र में डूब जाते हैं॥ ४३ ॥
प्रयोजनेषु ये सक्ता न विशेषेषु भारत । तानहं पण्डितान्मन्ये विशेषा हि प्रसङ्गिनः ॥ ४४ ॥
जो लोग जितना आवश्यक है, उतने हो काम में लगे रहते हैं, अधिक में हाथ नहीं दालते, उन्हें में पडते मानता है क्यांकि अधिक में हाथ डालना संधर्ष का कारण होता है ॥४४।
यं प्रशंसन्ति कितवा यं प्रशंसन्ति चारणाः । यं प्रशंसन्ति बन्धक्यो न स जीवति मानवः ॥ ४५ ॥
जुआरी जिसकी तारीफ करत है, चारण जिसकी प्रशसा का, गान करते हैं और वेश्याएँ जिसकी बढ़ाई किया करती है वह मनुष्य जीता ही मुर्दे के समान है।।४५ ॥
हित्वा तान्परमेष्वासान्पाण्डवानमितौजसः । आहितं भारतैश्वर्यं त्वया दुर्योधने महत् ॥ ४६ ॥
भारत ! आपने उन महान् धनुर्धर और अत्यन्त तेजस्वी पाण्डवों को छोड़कर यह महान् ऐश्वर्य का भार दुर्याधन के ऊपर रख दिया है ॥ ४६ ॥
तं द्रक्ष्यसि परिभ्रष्टं तस्मात्त्वं नचिरादिव । ऐश्वर्यमदसंमूढं बलिं लोकत्रयादिव ॥ ४७ ॥
इसलिये आप शीघ्र ही उस ऐश्रर्यमद से मृढ़ दुर्योधन को त्रिभुवन के साम्राज्य से गिरे हुए बालि की भाति इस राज्य से भ्रष्ट होते देखियेगा ॥४७॥
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि प्रजागरपर्वणि विदुरवाक्ये अष्टत्रिंशोऽध्यायः ।। ३८ ॥