Third Chapter - The qualities of a good king, the duties of a ruler, and the signs of a wise man
अध्याय 3 - अच्छे राजा के गुण, शासक के कर्तव्य और बुद्धिमान मनुष्य के लक्षण विषयIn Chapter 3, Vidura gives his advice to Dhritarashtra on various topics, such as the qualities of a good king, the duties of a ruler, and the signs of a wise man.
A good king is one who is virtuous, generous, brave, intelligent, and compassionate. He is also one who respects his elders, ministers, and subjects, and treats them with kindness and justice. He is also one who protects his kingdom from enemies, and promotes the welfare of his people. Vidura tells Dhritarashtra that he should be a good king, and not a tyrant, who is cruel, greedy, arrogant, and ignorant. He also tells him that he should not be influenced by his son Duryodhana, who is a bad king, and who has brought disgrace and disaster to his dynasty.
A ruler has certain duties and responsibilities towards his kingdom and his people. He has to uphold the law and order, and ensure the security and prosperity of his realm. He has to administer justice and punish the wrongdoers, and reward the virtuous and the meritorious. He has to support the four varnas (castes) and the four ashramas (stages of life), and respect the different religions and sects. He has to perform sacrifices and rituals, and honor the gods and the sages. He has to maintain friendly relations with other kings, and avoid unnecessary wars and conflicts. Vidura tells Dhritarashtra that he should perform his duties as a ruler, and not neglect or violate them. He also tells him that he should not be partial or biased towards his son Duryodhana, who has transgressed his duties as a prince, and who has oppressed and cheated the Pandavas, who are his cousins and co-rulers.
A wise man is one who has knowledge, understanding, and discernment. He is also one who has self-control, detachment, and contentment. He is also one who follows the dharma, and avoids the adharma. He is also one who speaks the truth, and avoids the falsehood. He is also one who is humble, and avoids the pride. He is also one who is calm, and avoids the anger. He is also one who is friendly, and avoids the enmity. Vidura tells Dhritarashtra that he should be a wise man, and not a fool, who is ignorant, deluded, and misguided. He also tells him that he should not be blinded by his love for his son Duryodhana, who is a fool, and who has caused the enmity and the war between the Pandavas and the Kauravas.
धृतराष्ट्र उवाच । ब्रूहि भूयो महाबुद्धे धर्मार्थसहितं वचः । शृण्वतो नास्ति मे तृप्तिर्विचित्राणीह भाषसे ॥ १ ॥
धृतराष्ट्र ने कहा- महाबुद्धे । तुम पुनः धर्म और अर्थ से युक्त बातें कहो, इन्हें सुनकर मुझे तृप्ति नहों होतो । इस बिषय में तुम अनद्भुत भाषण कर रहे हो ॥ १ ॥
विदुर उवाच । सर्वतीर्थेषु वा स्नानं सर्वभूतेषु चार्जवम् । उभे एते समे स्यातामार्जवं वा विशिष्यते ॥ २ ॥
विदुर जी बोले- कोमलता का बर्ताव— ये दोनों एक समान हैं, अथवा कोमलला के बर्ताव का सब तीर्थो में स्नान और सब प्राणियों के साथ विशेष महत्व है ॥ २ ॥
आर्जवं प्रतिपद्यस्व पुत्रेषु सततं विभो । इह कीर्तिं परां प्राप्य प्रेत्य स्वर्गमवाप्स्यसि ॥ ३ ॥
बिभो ! आप अपने पुत्र कौरव-पाण्डव दोनों के साथ समान रूप से कोमलता का बर्ताव कीजिये। ऐसा करने से इस लोक में महान् सुयश प्राप्त करके मरने के पश्चात् आप स्वर्ग लोक में जायँगे ॥ ३ ॥
यावत्कीर्तिर्मनुष्यस्य पुण्या लोकेषु गीयते । तावत्स पुरुषव्याघ्र स्वर्गलोके महीयते ॥ ४ ॥
पुरुषश्रेष्ठ ! इस लोक में जबतके मनुष्य की पावन कीर्ति का गान किया। जाता है, तबतक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है।।४ ॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् । विरोचनस्य संवादं केशिन्यर्थे सुधन्वना ॥ ५ ॥
इस विषय में उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसमें केशिनी के लिये सुधन्वा के साथ विरोचन के विवादका वर्णन है ॥ ५ ॥
स्वयंवरे स्थिता कन्या केशिनी नाम नामतः । रूपेणाप्रतिमा राजन् विशिष्टपतिकाम्यया ॥ ६ ॥
राजन् ! एक समयकी बात है, केशिनी नामवाली एक अनुपम सुन्दरी कन्या सर्वश्रेष्ठ पतिको वरण करनेकी इच्छासे स्वयंवर-सभामें उपस्थित हुई ॥ ६ ॥
विरोचनोsथ दैतेयस्तदा तत्राजगाम ह । प्राप्तुमिच्छंस्ततस्तत्र दैत्ये्ं प्राह केशिनी ॥ ७ ॥
उसी समय दैल्यकुमार विरोचन उसे प्राप्त करने की इच्छा से वहाँ आया । तब केशिनीने वहाँ दैत्यराज से इस प्रकार बातचीत की ॥ ७ ॥
केशिन्युवाच । किं ब्राह्मणाः स्विच्छ्रेयांसो दितिजाः स्विद्विरोचन । अथ केन स्म पर्यङ्कं सुधन्वा नाधिरोहति ॥ ८ ॥
केशिनी बोली-विरोचन ! ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं या दैत्य ? यदि ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं तो सुधन्वा ब्राह्मण ही मेरी शय्यापर क्यों न बैठे ? अर्थात् में सुधन्वा से विवाह क्यों न करूँ? ॥ ८ ॥।
विरोचन उवाच । प्राजापत्या हि वै श्रेष्ठा वयं केशिनि सत्तमाः । अस्माकं खल्विमे लोकाः के देवाः के द्विजातयः ॥ ९ ॥
विरोचनने कहा-केशिनी ! हम प्रजापतिकी श्रेष्ठ संतानें हैं, अतः सबसे उत्तम हैं। यह सारा संसार हम लोगों का ही है। हमारे सामने देवता क्या हैं ? और ब्राह्मण कौन चीज हैं ? | ९ ॥
केशिन्युवाच । इहैवास्स्व प्रतीक्षाव उपस्थाने विरोचन । सुधन्वा प्रातरागन्ता पश्येयं वां समागतौ ॥ १० ॥
केशिनी बोली-विरोचन ! इसी जगह हम दोनों प्रतीक्षा करें, कल प्रातःकाल सुधन्वा यहाँ आवेगा फिर में तुम दोनों को एकत्र उपस्थित देखगी॥ १० ॥
विरोचन उवाच । तथा भद्रे करिष्यामि यथा त्वं भीरु भाषसे । सुधन्वानं च मां चैव प्रातर्द्रष्टासि सङ्गतौ ॥ ११ ॥
विरोचन बोला कल्याणि ! तुम जैसा कहती हो, वही करूंगा प्रातःकाल तुम मुझे और सुधन्त्रा को एक साथ उपस्थित देखोगी॥ ११ ॥
विदुर उवाच अतीतायांच शर्वर्यामुदिते सूर्यमण्डले । अथाजगाम ते देशं सुधन्वा राजसत्तम । विरोचनो यत्र विभो केशिन्या सहितः स्थितः ॥ १२ ॥
विटुरजी कहते हैं-राजाओं में श्रेष्ठ धृतराष्ट्र ! इसके बाद जब रात बीती और सूर्यमण्डल का उदय हुआ, उस समय सुधन्वा उस स्थानपर आया, जहाँ विरोचन केशिनी के साथ उपस्थित था ।। १२ ।।
सुधन्वा च समागच्छत् प्रहलादि केशिनीं तथा। समागतं द्विजं दृष्ट्वा केशिनी भरतर्वभ । प्रत्युत्थायासनं तस्मै पाद्यमव्य ददौ पुनः ॥ १३ ॥
भरतश्रेष्ठ ! सुधन्वा प्रहादकुमार विरोचन और केशिनीके पास आया ।। बराहाण को आया देख केशिनी उठ खड़ी हुई और उसने उसे आसन, पाद्य और अर्ध्य निवेदन किया ॥ १३ ॥
विदुर उवाच । अन्वालभे हिरण्मयं प्राह्रादेऽहं तवासनम् । एकत्वमुपसम्पन्नो न त्वासेयं त्वया सह ॥ १४ ॥
सुधन्वा बोला- प्रहलादनन्दन ! में तुम्हारे इस सुवर्णमय सुन्दर सिंहासन को केवल छू लेता हूँ, तुम्हारे साथ इसपर बैठ नहीं सकता; क्योंकि ऐसा होने से हम दोनों एक समान हो जायेंगे ॥ १४ ॥
विरोचन उवाच । अन्वाहरन्तु फलकं कूर्चं वाप्यथ वा बृसीम् । सुधन्वन्न त्वमर्होऽसि मया सह समासनम् ॥ १५ ॥
विरोचनने कहा-सुधन्वन् ! तुम्हारे लिये तो पीढ़ा चटाई या कुश का आसन उचित है; तुम मेरे साथ बराबरके आसन पर बैठने योग्य हो ही नहीं ॥ १५ ॥
सुधन्वोवाच पितापुत्रौ सहासीतां छ्वौ विप्रौ क्षत्रियावपि । वृद्धौं वैश्यौ च शूद्रौ च न त्वन्यावितरेतरम् ॥ १६ ॥
सुधन्वाने कहा-पिता और पुत्र एक साथ एक आसन पर बैठ सकते हैं; दो ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो वृद्ध, दो वैश्य और दो शुद्र भी एक साथ बैठ सकते हैं, किन्तु दूसरे कोई दो व्यक्ति परस्पर एक साथ नहीं बैठ सकते ॥ १६ ॥
पितापि ते समासीनमुपासीतैव मामधः । बालः सुखैधितो गेहे न त्वं किं चन बुध्यसे ॥ १७ ॥
तुम्हारे पिता प्रह्लाद नीचे बैठकर ही मेरी सेवा किया करते हैं । तुम अभी बालक हो, घरमें सुख से पले हो; अतः तुम्हें इन बातों का कुछ भी ज्ञान नहीं है ॥ १७ ॥
विरोचन उवाच । हिरण्यं च गवाश्वं च यद्वित्तमसुरेषु नः । सुधन्वन्विपणे तेन प्रश्नं पृच्छाव ये विदुः ॥ १८ ॥
विरोचन बोला-सुधन्वन् ! हम असुरों के पास जो कुछ भी सोना, गौ, घोड़ा आदि धन है, उसकी मैं बाजी लगाता हूँ, हम-तुम दोनों चलकर जो इस विषय के जानकार हों, उनसे पूछे कि हम दोनों मे कौन श्रेष्ठ है ? ॥ १८ ॥
सुधन्वोवाच । हिरण्यं च गवाश्वं च तवैवास्तु विरोचन । प्राणयोस्तु पणं कृत्वा प्रश्नं पृच्छाव ये विदुः ॥ १९ ॥
सुधन्वा बोला-विरोचन ! सुवर्ण, गाय और घोड़ा तुम्हारे ही पास रहें, हम दोनों प्राणों की बाजी लगाकर जो जानकार हों, उनसे पूछे ॥१९ ॥
विरोचन उवाच । आवां कुत्र गमिष्यावः प्राणयोर्विपणे कृते । न हि देवेष्वहं स्थाता न मनुष्येषु कर्हि चित् ॥ २० ॥
विरोचन ने कहा- अच्छा, प्राणों की बाजी लगाने के पश्चात् हम दोनों कहाँ चलेंगे ? मैं न तो देवताओं के पास जा सकता हूँ और न कभी मनुष्योंसि ही निर्णय करा सकता हूँ।। २० ॥
सुधन्वोवाच । पितरं ते गमिष्यावः प्राणयोर्विपणे कृते । पुत्रस्यापि स हेतोर्हि प्रह्रादो नानृतं वदेत् ॥ २१ ॥
प्राणों की बाजी लग जाने पर हम दोनों तुम्हारे पिताके पास चलेंगे। [मुझे विश्वास है कि] प्रह्लाद अपने बेटे के लिये भी झूठ नहीं बील सकते हैं ॥ २१ ॥
विदुर उवाच एवं कृतपणौ क्रुद्धौ तत्राभिजग्मतुस्तदा । विरोचनसुधन्वानौ प्रहादो यत्र तिष्ठति ॥ २२ ॥
विदुर जी कहते हैं- इस तरह बाजी लगाकर परस्पर क्रुद्ध हो विरोचन और सुधन्वा दोनों उस समय बहाँ गये, जहाँ प्रह्लादजी थे ॥ २२ ॥
प्रह्लाद उवाच । इमौ तौ सम्प्रदृश्येते याभ्यां न चरितं सह । आशीविषाविव क्रुद्धावेकमार्गमिहागतौ ॥ २३ ॥
प्रहाद ने (मन-ही-मन) कहा- जो कभी भी एक साथ नहीं चले थे, वे ही दोनों ये सुधन्वा और विरोचन आज साँप की तरह क्रुद्ध होकर एक ही राह से आते दिखायी देते है ॥ २३ ॥
किं वै सहैव चरतो न पुरा चरतः सह । विरोचनैतत्पृच्छामि किं ते सख्यं सुधन्वना ॥ २४ ॥
[ फिर विरोचन से कहा- ] विरोचन ! मैं तुमसे पूछता हूँ, क्या सुधन्वा के साथ तुम्हारी मित्रता हो गयी है ? फिर कैसे एक साथ आ रहे हो ? पहले तो तुम दोनों कभी एक साथ नहीं चलते थे ॥ २४ ॥
न मे सुधन्वना सख्यं प्राणयोर्विपणावहे । प्रह्राद तत्त्वामृप्च्छामि मा प्रश्नमनृतं वदीः ॥ २५ ॥
विरोचन बोला-पिताजी ! सुधन्वा के साथ मेरी मित्रता नहीं हुई है। हम दोनों प्राणों की बाजी लगाये आ रहे हैं। मैं आपसे यथार्थ बात पूछता हूँ। मेरे प्रश्नको झूठा उत्तर न दीजियेगा ॥ २५ ॥
प्रह्लाद उवाच । उदकं मधुपर्कं चाप्यानयन्तु सुधन्वने । ब्रह्मन्नभ्यर्चनीयोऽसि श्वेता गौः पीवरी कृता ॥ २६ ॥
प्रहलाद ने कहा- सेवको ! सुधन्वा के लिये जल और मधुपर्क लाओ। [फिर सुधन्वासे कहा—] ब्रह्मन् ! तुम मेरे पूजनीय अतिथि हो, मैंने तुम्हारे लिये सफेद गौ खूब मोटी-ताजी कर रखी है ॥ २६ ॥
सुधन्वोवाच । उदकं मधुपर्कं च पथ एवार्पितं मम । प्रह्राद त्वं तु नौ प्रश्नं तथ्यं प्रब्रूहि पृच्छतोः ॥ २७ ॥
सुधन्वा बाला-प्रहाद ! जल और मधुपर्क तो मुझे मार्ग में ही मिल गया है। तुम तो जो मैं पूछ रहा हूँ, उस प्रश्रका ठीक-ठीक उत्तर दो-क्या ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं अथवा विरोचन ? ॥ २७ ॥
प्रह्लाद उवाच । पुर्तो वान्यो भवान्ब्रह्मन्साक्ष्ये चैव भवेत्स्थितः । तयोर्विवदतोः प्रश्नं कथमस्मद्विभो वदेत् ॥ २८ ॥
प्रह्लाद बोले-ब्रह्मन् ! मेरे एक ही पुत्र है और इधर तुम स्वयं उपस्थित हो; भला तुम दोनों के विवाद में मेरे-जैसा मनुष्य कैसे निर्णय दे सकता है ? ॥ २८ ॥
सुधन्वोबाच गां प्रदद्यास्त्वौरसाय यद्वान्यत् स्यात् प्रियं धनम् । द्वयोर्विवदतोस्तथ्यं वाच्यं च मतिमंस्त्वया ॥ २९ ॥
सुधन्वा बोला-मतिमन् । तुम्हारे पास गौ तथा दूसरा जो कुछ भी प्रिय धन हो, वह सब अपने औरस पुत्र विरोचनको दे दो; परंतु हम दोनॉ के विवाद में तो तुम्हें ठीक-ठीक उत्तर देना ही चाहिये ॥ २९ ॥
अथ यो नैव प्रब्रूयात्सत्यं वा यदि वानृतम् । एतत्सुधन्वन्पृच्छामि दुर्विवक्ता स्म किं वसेत् ॥ ३० ॥
प्रह्वाद ने कहा-सुधन्वन् ! अबे में तुमसे यह बाते पूछता हूँ, जो सत्य न बोले अरथवा असत्य निर्णय करे, ऐसे दुष्ट बक्ता की क्या स्थिति होती है ? | ३० ॥
सुधन्वोवाच । यां रात्रिमधिविन्ना स्त्री यां चैवाक्ष पराजितः । यां च भाराभितप्ताङ्गो दुर्विवक्ता स्म तां वसेत् ॥ ३१ ॥
सुधन्वा बोला-सौतवाली स्त्री, जूएमें हारे हुए जुआरी और भार ढोने से व्यथित शरीर वाले मनुष्य की रात में जो स्थिति होती है, वही स्थिति उलटा न्याय देने वाले वक्ता की भी होती है ॥ ३१ |॥
नगरे प्रतिरुद्धः सन्बहिर्द्वारे बुभुक्षितः । अमित्रान्भूयसः पश्यन्दुर्विवक्ता स्म तां वसेत् ॥ ३२ ॥
जो झूठा निर्णय देता है, वह राजा नगर में कैद होकर बाहरी दरवाजे पर भूख का कष्ट उठाता हुआ बहुत-से शत्रुओं को देखता है ॥ ३२ ।।
पञ्च पश्वनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते । शतमश्वानृते हन्ति सहस्रं पुरुषानृते ॥ ३३ ॥
पशु के लिये झूठ बोलने से पाँच पीढ़ियों को, गौके लिये झूठ बोलने पर दस पीढ़ियों को, घोड़े के लिये असत्य भाषण करने पर सौ पीढ़ियों को और मनुष्य के लिये झूठ बोलन पर एक हज़ार पीढ़ियों को मनुष्य नरक में ढकेलता है।। ३३ ॥
हन्ति जातानजातांश्च हिरण्यार्थोऽनृतं वदन् । सर्वं भूम्यनृते हन्ति मा स्म भूम्यनृतं वदीः ॥ ३४ ॥
सोने के लिये झूठ बोलने वाला भूत और भविष्य सभी पीढ़ियों को नरक में गिराता है पृथ्वी तथा स्त्री के लिये झूठ कहनेवाला तो अपना सर्वनाश ही कर लेता है, इसलिये तुम भूमि या स्त्री के लिये कभी झुठ न बोलना ॥ ३४ ॥
प्रह्लाद उवाच । मत्तः श्रेयानङ्गिरा वै सुधन्वा त्वद्विरोचन । मातास्य श्रेयसी मातुस्तस्मात्त्वं तेन वै जितः ॥ ३५ ॥
प्रह्लाद ने कहा-विरोचन ! सुधन्बा के पिता अङ्गिरा मुझसे श्रेष्ठ हैं, सुधन्वा तुमसे श्रष्ठ है, इसकी माता भी तुम्हारी माता से श्रेष्ठ है, अतः तुम आज सुधन्वास हार गये।। ३५ ।।
विरोचन सुधन्वायं प्राणानामीश्वरस्तव । सुधन्वन्पुनरिच्छामि त्वया दत्तं विरोचनम् ॥ ३६ ॥
विरोचन ! अब सुधन्वा दुम्हारे प्राण का मालिक है। सुधन्वन् ! अब यदि तुम दे दो तो में विरोचन को पाना चौहता हैं ! ॥ ३६ ।।
सुधन्वोवाच । यद्धर्ममवृणीथास्त्वं न कामादनृतं वदीः । पुनर्ददामि ते तस्मात्पुत्रं प्रह्राद दुर्लभम् ॥ ३७ ॥
सुधन्वा बोला-प्रहलाद ! तुमने धर्म को ही स्वीकार किया है, स्वार्थवश झूठ नहीं कहा है; इसलिये अब इस दुर्लभ पुत्र को फिर तुम्हें दे रहा हूँ ॥ ३७ ॥
एष प्रह्राद पुत्रस्ते मया दत्तो विरोचनः । पादप्रक्षालनं कुर्यात्कुमार्याः संनिधौ मम ॥ ३८ ॥
प्रह्लाद ! तुम्हारे इस पुत्र विरोचन को मैने पुनः तुम्हें दे दिया; कितु अब यह कुमारी केशिनी के निकट चलकर मेरा पैर धोवे ।। ३८ ॥
विदुर उवाच । तस्माद्राजेन्द्र भूम्यर्थे नानृतं वक्तुमर्हसि । मा गमः स सुतामात्योऽत्ययं पुत्राननुभ्रमन् ॥ ३९ ॥
विदुर जी कहते हैं- इसलिये राजेन्द्र । आप पृथ्वी के लिये झूठ न बोलें। बेटे के स्वार्थवश सच्ची बात न कहकर पुत्र और मन्त्रियों के साथ विनाश के मुख में न जायेँ ॥ ३९ ॥
न देवा यष्टिमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् । यं तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्ध्या संविभजन्ति तम् ॥ ४० ॥
देवता लोग चरवाहों की तरह डण्डा लेकर पहरा नहीं देते। बे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे उत्तम बुद्धि से युक्त कर देते हैं।। ४० ॥
यथा यथा हि पुरुषः कल्याणे कुरुते मनः । तथा तथास्य सर्वार्थाः सिध्यन्ते नात्र संशयः ॥ ४१ ॥
मनुष्य जैसे-जैसे कल्याण में मन लगाता है, वैसे-ही-वैसे उसके सारे अभीष्ट सिद्ध होते हैं इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है॥४१ ॥
न छन्दांसि वृजिनात्तारयन्ति आयाविनं मायया वर्तमानम् । नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाश् छन्दांस्येनं प्रजहत्यन्तकाले ॥ ४२ ॥
कपटपूर्ण व्यवहार करने वाले मायावी को वेद पापों से मुक्त नहीं करते; किंतु जैसे पंख निकल आने पर चिड़ियों के बच्चे घोंसला छोड़ देते हैं, उसी प्रकार वेद भी अन्त काल में उसे त्याग देते हैं ॥ ४२ ॥
मत्तापानं कलहं पूगवैरं भार्यापत्योरन्तरं ज्ञातिभेदम् । राजद्विष्टं स्त्रीपुमांसोर्विवादं वर्ज्यान्याहुर्यश्च पन्थाः प्रदुष्ठः ॥ ४३ ॥
शराब पीना, कलह, समूह के साथ वैर, पति-पत्नी में भेद पैदा करना, कुटुम्ब वालों में भेदबुद्धि उत्पनत्न करना, राजा के साथ द्वेष, स्त्री और पुरुष में विवाद और बुरे रास्ते- ये सब त्याग देने योग्य बताये
सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्वं शलाक धूर्तं च चिकित्सकं च । अरिं च मित्रं च कुशीलवं च नैतान्साख्येष्वधिकुर्वीत सप्त ॥ ४४ ॥
हस्तरेखा देखने वाला, चोरी करके व्यापार करने वाला, जुआरी, वैद्य, शत्रु, मित्र, और नर्तक- इन सातों को कभी भी गवाह न बनावे ॥ ४४ ॥
मानाग्निहोत्रमुत मानमौनं मानेनाधीतमुत मानयज्ञः । एतानि चत्वार्यभयङ्कराणि भयं प्रयच्छन्त्ययथा कृतानि ॥ ४५ ॥
आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्वाध्या और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान—ये चार कम भय को दूर करने वाले हैं, किंतु वे ही यदि ठीवक तरह से सम्पादित न हों तो भय प्रदान- करने वाले होते हैं ।।४५ ।।
अगार दाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी । पर्व कारश्च सूची च मित्र ध्रुक्पारदारिकः ॥ ४६ ॥
भ्रूणहा गुरु तल्पी च यश्च स्यात्पानपो द्विजः । अतितीक्ष्णश्च काकश्च नास्तिको वेद निन्दकः ॥ ४७ ॥
स्रुव प्रग्रहणो व्रात्यः कीनाशश्चार्थवानपि । रक्षेत्युक्तश्च यो हिंस्यात्सर्वे ब्रह्मण्हणैः समाः ॥ ४८ ॥
घर में आग लगाने वाला, विष देने वाला, जारज संतान की कमाई खाने वाला सोमरस बेचने वाला, इस्त्र बनाने वाला चुगली करने वाला, मित्रद्रोही, परस्त्री लम्पट, गर्भ कों हत्या करने वाला, गुरु स्त्री गामी, ब्राह्मण होकर शराब पीने वाला, अधिक तीखे स्वभाव वाला, कौए की तरह काँय-कॉय करने वाला नास्तिक, वेद की निन्दा करने वाला, ग्राम पुरोहित, ब्रात्य क्रूर तथा शक्ति रहते हुए रक्षा के लिये प्रार्थना करने पर भी जो हिंसा करता है- ये सब-के सब ब्रह्महत्यारों के समान हैं॥ ४६-४८ ॥
तृणोक्लया ज्ञायते जातरूपं युगे भद्रो व्यवहारेण साधुः । शूरो भयेष्वर्थकृच्छ्रेषु धीरः कृच्छ्रास्वापत्सु सुहृदश्चारयश् च ॥ ४९ ॥
जलती हुई आग से सोने की पहचान होती है, सदाचार से सत्पुरुष की, व्यवहार से साधु की, भय आनेपर शुर की, आर्थिक कठिनाई में धीर की और कठिन आपत्ति में शत्रु एवं मित्र की परीक्षा होती है ॥ ४९ |॥
जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा मृत्युः प्राणान्धर्मचर्यामसूया । क्रोधः श्रियं शीलमनार्य सेवा ह्रियं कामः सर्वमेवाभिमानः ॥ ५० ॥
बुढापा (सुन्दर) रूप कों, आशा रता को, मृल्यु प्राणो को, दोष देखने कों आदत धर्माचरण को, क्रोध लक्ष्मी को, नीच पुरुषों की सेवा सत्स्वभाव को, काम लज्जा को और अभिमान सर्वस्व को नष्ट् कर देता है ॥ ५० ॥
श्रीर्मङ्गलात्प्रभवति प्रागल्भ्यात्सम्प्रवर्धते । दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं संयमात्प्रतितिष्ठति ॥ ५१ ॥
शुभ कर्मो से लक्ष्मी की उत्पत्ति होती। है, प्रगल्मता से वह बढ़ती है, चतुरता से जड़ जमा लेती है और संयम से सुरक्षित रहती है ॥ ५१ ॥
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च । पराक्रमश्चाबहु भाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥ ५२ ॥
आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं— बुद्धि, कुलीनता, दम, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, बहुत न बौलना, यथाशक्ति दान देना और कृतज्ञ होना ॥ ५२ ॥
एतान्गुणांस्तात महानुभावान् एको गुणः संश्रयते प्रसह्य । राजा यदा सत्कुरुते मनुष्यं सर्वान्गुणानेष गुणोऽतिभाति ॥ ५३ ॥
तात ! एक गुण ऐसा है, जो इन सभी महत्त्वपूर्ण गुणोंपर हठात् अधिकार जमा लता है। जिस समय राजा किसी मनुष्य का सल्कार करती है, उस समय यह एक ही गुण (राज सम्मान) सभी गुणौस बढ़कर शौभा पाता है॥ ५३ ॥
अष्टौ नृपेमानि मनुष्यलोके स्वर्गस्य लोकस्य निदर्शनानि । चत्वार्येषामन्ववेतानि सद्भिश् चत्वार्येषामन्ववयन्ति सन्तः ॥ ५४ ॥
राजन् ! मनुष्य लोक मे ये आठ गुण स्वगलोक का दर्शन करानेवाले हैं; इनमे से चार तो संतो के साथ नित्य सम्बद्ध हैं-उनमें सदा विद्यमान रहते हैं। और चार का सज्जन पुरुष अनुसरण करते हैं ॥ ५४ ॥
यज्ञो दानमध्ययनं तपश् च चत्वार्येतान्यन्ववेतानि सद्भिः । दमः सत्यमार्जवमानृशंस्यं चत्वार्येतान्यन्ववयन्ति सन्तः ॥ ५५ ॥
यज्ञ, दान, अध्ययन और तप- ये चार सजनों के साथ नित्य सम्बद्ध हैं और इन्द्रियनिग्रह, सत्य, सरलता तथा कोमलता- इन चारों का संत लोग अनुसरण करते हैं ॥ ५५॥
इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा घृणा । अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः ॥ ५६ ॥
यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और अलोभ- ये धर्म के आठ प्रकार के मार्ग बताये गये हैं ।। ५६ ॥
तत्र पूर्वचतुर्वगों दम्भार्थमपि सेव्यते । उत्तरश्च चतुर्वर्गं नामहात्मसु तिष्ठति ॥ ५७ ॥
इनमेंसे पहले चारों का तो दम्भके लिये भी सेवन किया जा सकता है, परंतु अन्तिम चार तो जो महत्मा नहीं है, उनमें रह हो नहीं सकते ।। ५७ ॥।
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम् । नासौ हर्मो यतन सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम् ॥ ५८ ॥
जिस सभाप बड़े-बूंढ़े नहीं, वह सभा नहीं, जो धर्मकी बात न कहें, वे बूढ़े नहीं, जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपट से पूर्ण हो, वह लत्य नहीं है ॥ ५८ ॥
सत्यं रूपं श्रुतं विद्या कौल्यं शीलं बलं धनम् । शौर्यं च चिरभाष्यं च दशः संसर्गयोनयः ॥ ५९ ॥
सत्य, विनय का भाव, शास्त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शरता और चमत्कारपूर्ण बात कहना-ये दस स्वर्ग के साधन हैं ॥ ५९ ॥
पापं कुर्वन्पापकीर्तिः पापमेवाश्नुते फलम् । पुण्यं कुर्वन्पुण्यकीर्तिः पुण्यमेवाश्नुते फलम् ॥ ६० ॥
पापकोर्ति वाला मनुष्य पापाचरण करता हुआ पाप रूप फल को ही प्राप्त करता है और पुण्यकर्मा मनुष्य पुण्य करता हुआ अत्यन्त पुण्य फल का ही उपभोग करता है ॥ ६० ॥
पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः । नष्टप्रज्ञः पापमेव नित्यमारभते नरः ॥ ६१ ॥
इसलिये प्रशंसित व्रतका आचरण करने वाले पुरुष को पाप नहीं करना चाहिये, क्योंकि बारम्बार किया हुआ पाप बुद्धि को नष्ट कर देता है ॥ ६१ ॥
पुण्यं प्रज्ञां वर्धयति क्रियमाणं पुनः पुनः । वृद्धप्रज्ञः पुण्यमेव नित्यमारभते नरः ॥ ६२ ॥
जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। इसी प्रकार बारम्बार किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है॥ ६२ ॥
वृद्धप्रज्ञः पुण्यमेव नित्यमारभते नरः । पुण्यं कुर्वन् पुण्यकीर्तिः पुण्यं स्थानं स्म गच्छति । तस्मात् पुण्यं निषेवेत पुरुष: सुसमाहितः ॥ ६३ ॥
जिसकी बुद्धि बढ़ जाती है, वह मनुष्य सदा पुण्य ही करता है। इस प्रकार पुण्यकर्मा मनुष्य पुण्य करता हुआ पुण्यलोक को ही जाता है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह सदा एकाग्रचित्त होकर पुण्य का ही सेवन करे ।। ६३ ॥
असूयको दन्द शूको निष्ठुरो वैरकृन्नरः । स कृच्छ्रं महदाप्नोतो नचिरात्पापमाचरन् ॥ ६४ ॥
गुणो में दोष देखने वाला, मर्म पर आधात करने वाला, नि्देयी, शत्रुता करने वाला और शठ मनुष्य पापका आचरण करता हुआ शीघ्र ही महान् कष्ट को प्राप्त होता है॥ ६४ ॥
अनसूयः कृतप्रज्ञ्टः शोभनान्याचरन्सदा । अकृच्छ्रात्सुखमाप्नोति सर्वत्र च विराजते ॥ ६५ ॥
दोषदृष्टि से रहित शुद्ध बुद्धिवाला पुरुष सदा शुभ कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ महान् सुख को प्राप्त होता है और सर्वत्र उसका सम्मान होता है ॥ ६५ ॥
प्रज्ञामेवागमयति यः प्राज्ञेभ्यः स पण्डितः । प्राज्ञो ह्यवाप्य धर्मार्थौ शक्नोति सुखमेधितुम् ॥ ६६ ॥
जो बुद्धिमान् पुरुषों से सद्बुद्धि प्राप्त करता है, वही पण्डित है क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपनी उन्नति करने में समर्थ होता है ॥ ६६ ॥
दिवसेनैव तत्कुर्याद्येन रातौ सुखं वसेत् । अष्ट मासेन तत्कुर्याद्येन वर्षाः सुखं वसेत् ॥ ६७ ॥
दिनभर में ही वह कार्य कर ले, जिससे रात में सुखसे रह सके और आठ महीनों में वह कार्य कर ले, जिससे वर्षा के चार महीने सुख से व्यतीत कर सके॥ ६७ ॥
पूर्वे वयसि तत्कुर्याद्येन वृद्धसुखं वसेत् । यावज्जीवेन तत्कुर्याद्येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥ ६८ ॥
पहली अवस्था में वह काम करे, जिससे वृद्धावस्था में सुखपूर्वक रह सके और जीवन भर वह कार्य करे, जिससे मरने के बाद भी सुख से रह सके ॥ ६८ ।।
जीर्णमन्नं प्रशंसन्ति भार्यं च गतयौवनाम् । शूरं विगतसङ्ग्रामं गतपारं तपस्विनम् ॥ ६९ ॥
सज्जन पुरुष पच जाने पर अन्नकी, निष्कलढ़ जवानी बीत जाने पर स्त्री की, संग्राम जीत लेने पर शूर की और तत्त्व ज्ञान प्राप्त हो जानेपर तपस्वी की प्रअशंसा करते हैं ।। ६९ |
धनेनाधर्मलब्धेन यच्छिद्रमपिधीयते । असंवृतं तद्भवति ततोऽन्यदवदीर्यते ॥ ७० ॥
अधर्म से प्राप्त हुए धन के द्वारा जो दोष छिपाया जाता है, वह तो छिपता नहीं, उससे भिन्न और नया दोष प्रकट हो जाता है ।। ७० ॥
गुरुरात्मवतां शास्ता शासा राजा दुरात्मनाम् । अथ प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥ ७१ ॥
अपने मन और इन्द्रियों को वश में करने वाले शिष्यों के शासक गुरु हैं, दुष्टों के शासक राजा हैं और छिपे-छिपे पाप करने वालों के शासक सूर्यपुत्र यमराज हैं॥ ७१ ॥
ऋषीणां च नदीनां च कुलानां च महामनाम् । प्रभवो नाधिगन्तव्यः स्त्रीणां दुश्चरितस्य च ॥ ७२ ॥
ऋषि, नदी, महात्माओं के कुल तथा स्त्रियों के दुश्चरित्र का मूल नहीं जाना जा सकता ॥ ७२ ॥
द्विजातिपूजाभिरतो दाता ज्ञातिषु चार्जवी । क्षत्रियः स्वर्गभाग्राजंश्चिरं पालयते महीम् ॥ ७३ ॥
राजन् ! ब्राह्मणों की सेवा-पूजा में संलग्र रहने वाला, दाता, कुटुम्बीजनों के प्रति कोमलता का बर्ताव करने वाला और शीलवान् राजा चिरकाल तक पृथ्वी का पालन करता है॥ ७३ ॥
सुवर्णपुष्पां पृथिवीं चिन्वन्ति पुरुषास्त्रयः । शूरश्च कृतविद्यश्च यश्च जानाति सेवितुम् ॥ ७४ ॥
शर, विद्वान् और सेवाधर्म को जानने वाले -ये तीन प्रकार के मनुष्य पृथ्वी से सुवर्णरूपी पुष्प का सञ्चव करते हैं।। ७४ ॥
बुद्धिश्रेष्ठानि कर्माणि बाहुमध्यानि भारत । तानि जङ्घा जघन्यानि भारप्रत्यवराणि च ॥ ७५ ॥
भारत ! बुद्धि से विचारकर किये हुए कर्म श्रेष्ठ होते हैं, बाहुबल से कियें जाने वाले कर्म मध्यम श्रेणी के हैं, जड्गा से होने वाले कार्य अधम हैं और भार ढोने का काम महान् अधम है ॥ ७५ ॥
दुर्योधने च शकुनौ मूढे दुःशासने तथा । कर्णे चैश्वर्यमाधाय कथं त्वं भूतिमिच्छसि ॥ ७६ ॥
राजन् !- अब आप दुर्योधन, शकुनि, मूर्ख दुःशासन तथा कर्ण पर राज्य का भार रखकर उन्नति कैसे चाहते हैं ? ॥ ७६॥
सर्वैर्गुणैरुपेताश्च पाण्डवा भरतर्षभ । पितृवत्त्वयि वर्तन्ते तेषु वर्तस्व पुत्रवत् ॥ ७७ ॥
भरतश्रेष्ठ ! पांडव तो सभी उत्तम गुणों से संपन्न हैं और आप में पिता का-सा भाव रखकर बताव करते हैं, ऑप भी उनपर पुत्रभाव रखकर उचित व्यवहार कीजिये ॥ ७७॥
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि प्रजागरपर्वणि विदुरहितवाक्ये पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५॥